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[साधारण धर्म हत्यारा नहीं है और जानना चाहिये कि उसने बेड़ा पाकर भी अपने आपको समुद्रमे डुबो दिया। नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं सवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम् । मयानुकूलेन नमस्वतेरितं पुमान्भवाब्धिन तरेत्स आत्महा।।
(भाग स्कं ११ अ २० लो १७) जिस प्रकार बाटा, घृत व शकर तीनों पदार्थों के मेलसे जानमें उपयोगी विविध ] प्रसाद (हलवा) की सिद्धि होती है, कृमा व विचारमहिमा ( उसके लिये तीनो ही पदार्थाकी आव. श्यकता है, तीनोम यदि एक भी न हो तो सिद्धि असम्भव है। इसी प्रकार ज्ञानरूपी अमृतके सिद्ध करनेके लिये गुरुकृपा, शास्त्रकृपा व आत्मकृपा तीनो सामग्रीका होना अत्यन्त आवश्यक है, तीनोंमें यदि एक भी न हो तो ज्ञानकी सिद्धि असम्भव है। मोक्ष की तीब्र जिज्ञासा और सारासार-विवेकरूप निर्मल विचारका नाम श्रात्मकृपा है । गुरुकृपा व शास्वकृपा विद्यमान है, परन्तु यदि आत्मकृपा जाग्रत् नही हुई, तब यह दोनो विद्यमान हुई भी यथार्थ फल नहीं दे सकती। परन्तु यदि धात्मकृपा भली-भाँति प्रज्वलित हो गई है तो उक्त दोनो कृपा स्वाभाविक आफर्पित हो जानेके लिये बाध्य हैं, ईश्वरकी नीति ऐसी ही है। जिस प्रकार दीपक यदि अपने प्रकाश में प्रकाशित है और अपने आपको जला रहा है, तो पतंगे विना किसी आहानके अपने आप उसपर जलनेके लिये खिंचे चले आयेंगे। इस अवस्थापर पहुँचकर हमारे आत्मदेवने तीनों कृपात्रोको ही यथार्थरूपसे आलिङ्गन किया है, इसलिये इसकी सफलतामें कोई सन्देह नहीं । वास्तवमें इस अनर्थरूप संसारकी निवृत्तिका उपाय विचारसे भिन्न और कुछ है ही नहीं अपना निर्मल विचार ही एकमात्र प्रपञ्चनिवृत्तिको