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श्रामविलास
द्वि० खण्ड साक्षात् साधन है। यज्ञ-दान-तपादिक, निष्कामकर्म-उपासनावैराग्यादिक तथा शम-दमादिका फल साक्षात् अथवा परम्परा करके विक्षेपादि दोपकी निवृतिद्वारा निर्मल विचारको उत्पत्ति ही है । गुरुकृपा व शाषकृपा भी अपने निर्मल विचारकी उत्पत्तिद्वारा ही मोक्षमें सहायक हैं, अन्य रूपले नहीं। सद्गुरुकृपाका फल निर्मल विचार ही है। जो वस्तु अविचारसिद्ध हो उसकी केवल विचारसे ही निवृत्ति सम्भव है। जिस प्रकार अपनी परिछाहीमे अविचारसिद्ध नैतालकी निवृत्ति विचारद्वारा ही सम्भव है, इसी प्रकार आत्मामें अविचारसिद्ध जगत्की निवृत्ति केवल विचारद्वारा ही हो सकती है, अन्य उपायसे नहीं । केवल विचारद्वारा ही बुद्धि तीक्ष्ण होती है, वुद्धिका भोजन विचार ही है, इसी से उसकी पुष्टि होती हैं। अज्ञानरूपी वनमें आपदारूपी वेलि पसरी हुई है, विचाररूपी तीक्ष्ण खड्गसे ही उसको काटा जा सकता है। दुःख अविचार करके ही है, केवल विचारमे ही उसकी निवृत्ति है । मोहरूपी हाथी जीवके हृदय कमलको खण्ड. खण्ड कर डालता है और राग-द्वेपादि कीचड़ फैलाकर जीवको उसमें फँसा देता है, जब विचाररूपी सिह प्रकट हो तब मोहरूपी हाथ का नाश हो और राग-द्वपादि पर सूखकर जीवको शान्ति मिले। विचारवान पुरुप आपढामे इसी प्रकार नहीं डूबता जैसे तुम्बी जलमे नहीं डूबती। जैसे दीपकसे पदार्थका ज्ञान होता है, इसी प्रकार केवल विचारसे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है। अविचाररूपी रात्रिमे तृष्णादि पिशाचनी विचरती रहती हैं, जब विचाररूपी सूर्य उदय हो तव अविचाररूपी रात्रि
और तृष्णारूपी पिशाचनीका पता भी नहीं चलता कि कहाँ गये। सद्गुरुष सच्चालाकी युत्तिद्वारा केवल आत्मविचारसे ही संसारमयको नियुत्ति होती है । इस अवस्थापर पहुंचकर हमारे