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आत्मविलास ]
[ १५० दि० खण्ड स्वयं भावरूप न होते हुए भी, यह भावरूप नतीत हो रहा है। जैसे रज्जुमे भ्रमरूप सर्प स्वय अभावरूप होते हुए भी भावरूपरज्जुके श्राश्रय भावरूप प्रतीत होता है।
(४) जव कि कोई एक भावरूप सत्वस्तु इस प्रपञ्चके नीचे जानी गई, तब उस वस्तुका निर्विकार होना भी जरूरी है। क्योकि यदि देश-काल-वस्तु परिच्छेदरूप विकारोसे उस सत्वस्तु को प्रभाषित माना जाय और विकारी जाना जाय, तो ऐसी विकारी सत्वरतुके आश्रय तो प्रापचिक विकारोकी प्रतीति ही असम्भव होगी। जैरो स्वर्णकारका अहरन यदि हथौड़ेकी चोटसे आप हो नीचे दबनेवाला हो, तो उसके श्राश्रय भूपणरूप विकारों की सिद्धि हो नहीं सकती। भूपणरूप विकारोकी सिद्धि तो अपने श्राश्रय वह अहरन तभी कर सकता है, जबकि वह सर्व विकारांमे आप अचल-कूटस्थ रहे। इसी प्रकार प्रापचिक विकारो के नीचे उस सनबस्तुका निर्षिकार, अचत, कूटस्थ रहना ही निश्चित है।
(५) इस प्रकार इस प्रपञ्चके नीचे उस सत्, निर्षिकार तथा भावरूप वस्तुका एक व देश-काल-वस्तु-परिच्छेदशून्य तथा सजातीय-विजातीय-स्वगतभेदशून्य होना ही निश्चित् हैं। क्योंकि यदि वह सत्वस्तु भेद व परिच्छेदवाली मानी जान तो विकारी होनेसे उस भेट व परिच्छेदवाती वस्तुकी लयरूप निवृत्ति माननी होगी। यदि पह निकृतस्वभाव हुई तो उसकी लयरूप निवृत्ति शून्यमे तो हो न सकेगी। योकि अभावरूप शून्यसे जव भाव की उत्पत्ति ही असम्भव है, तब अभावरूप शून्यमें भावकी निवृत्ति कैसे हो ? यह नियम है कि जिससे जिसकी उत्पत्ति होती है उसकी निवृत्ति भी उसीमे होती है, जैसे घटकी उत्पत्ति मृत्तिका