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[ साधारण धर्म तो उरङ्गोका भाव अथवा प्रभाव कैसे सिद्ध हो ? विशेषरूप तरजोकी प्रतीति ही अपने नीचे मामान्य, निविशेप जलको सिद्ध कर रही है। इसी प्रकार विशेषरुप प्रपञ्चका भावाभावरूप विकार अपने नीचे निर्विशेप, सामान्य, निर्विकार, अपरिच्छिन्न, सलवस्तुको सिद्ध कर रहा है।
(३) प्रपञ्च जब कि अपने स्वरूपसे विकारी है और प्रत्येक क्षणमें नष्ट हो रहा है, ऐसी अवस्थामे यदि इसके मूलमे कोई एक अचल-कूटस्थ वस्तु न होती तो उत्तर क्षणमे इसकी प्रतीति भी न होती । यदि ऐसा मान लिया जाय कि इस प्रपञ्चके नीचे कोई एक अचल-कूटस्थ वस्तु नहीं है, तन ऐसी अवस्था मे अव्यवहित पूर्व-क्षणमें जब नष्टम्वभाव प्रपञ्चका नाश हो गया तो उत्तरक्षणमें इस प्रपञ्चकी प्रतीति भी न होनी चाहिये थी। क्योंकि जैसा अङ्क नं०२ में अपर विचार किंग जा चुका है, अभावसे तो भावकी उत्पत्ति हो नहीं सक्ती और भावरूप अचल-कूटस्थ कोई सत्त्वस्तु इस प्रपञ्चके नीचे मानी नहीं गई, जिसके आश्रय इसकी उत्तर-प्रतीति होती। इसलिये स्वयं अभावरूप होनेसे इस प्रपञ्चकी उत्तर क्षणमें प्रतीति ही नहीं होनी चाहिये थी। परन्तु यह प्रपञ्च तो प्रत्येक उत्तर-क्षणमें 'घट है! 'पट है' 'धन है। 'पुत्र है। 'स्त्री है इत्यादि रूपसे 'है। 'हैकरके अपने स्वभावसे श्रभावरूप हुआ भी भावरूप प्रतीत हो रहा है। इस प्रकार इस प्रपञ्च की उत्तर-प्रतीति ही, अपने मूल में किसी एक सत्य-कूटस्थ भावरूप वस्तुको सिद्ध कर रही है। क्योंकि यह प्रपञ्च अपने स्वरूपसे
तो प्रत्येक क्षण विकारी होनेसे अभावरूप ही है। इसलिये स्वयं । अमावरूप होते हुए भी, उस भावरूप अचल-कूटस्थके आश्रय
व्यवधानरहित, अन्तरायरहित ।
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