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आत्मविलास]
[१४८ वि० सएड मे किसी एक नित्य-निर्विकार वस्तुका पता देती है। धेगकी तीव्रता करके निकारी होता हुआ भी यह प्रपञ्च स्थूल नेत्रोद्वारा इसी प्रकार स्थित प्रतीत होता है, जैसे किसी मशीनका पहिया पेगकी तीव्रता करके बिल्कुल स्थित प्रतीत होता है। अश्या जैसे बालक ल खेलते हैं, तब वह अपने चक्रके वेगसे खडा हुआ प्रतीत होता है और बच्चे तालियाँ बजाते है कि यह घूमता नहीं बल्कि स्थित है।
(२) अव विचार होता है कि यह जो इतना असख्य विकार प्रतीत हो रहा है, अपने-आप तो इसकी सिद्धि हो नहीं सकती, बल्कि उसके मूलमें कोई एक निर्विकार, सत्वस्तु अवश्य रहनी चाहिये। क्योंकि विकारी वस्तु तो अपने स्वरूपसे किसी कालम भी वही नहीं है और प्रत्येक कालमें नष्ट हो रही है । तथा प्रत्येक नाश अमावस्प (Negative) है,भावरूप (Positive) नहीं। और यह अचूक सिद्धान्त है कि 'अभाव' (नहीं) से 'अभाव' (नही) की सिद्धि कदापि हो नहीं सक्ती, बल्कि 'भाव' से ही 'अभाव की सिद्धि हो सकती है। अजी । है हीन हो तो 'नहीं को कौन सिद्ध करे। पहले है हो तो पीछे नही की सिद्धि हो। जैसे शन्य (6) का अपने आप कोई मूल्य नहीं, एका '१५ (Unit) हो तब उसके आश्रय ही शन्यका मूल्य हो सकता है। इसी प्रकार यह प्रपञ्च नित्य-विकारी होनेसे अपने-आप तो (०) शून्यरूप ही है तथापि किनी एक अद्वैत-निर्विकारके आश्रय ही इसकी भावाभावरूप सिद्धिका सम्भव है। जैसे 'अस्ति' रूपे सत्ता-सामान्य जत हो तब उसके आश्रय ही विशेषरूप तरहों का भाव व अभाव सिद्ध होता है। अर्थात् 'अव तरङ्ग है और 'अय तरह नहीं है, इन दोनो अवस्थाओंका प्रकाश सामान्य रूप जलके द्वारा ही हो सकता है । सत्ता सामान्य जल ही न हो