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श्रामविलास
[१४६ दि० राण्ड श्राप चित्तमे देश-माल-बस्तुको अन्योऽज्याप्रयता घर कर गई, जो किसी प्रकार दूर करनेस भी दूर न हुई। वृत्तिप्रभाकर प्रभा. फररूप बनकर अज्ञानान्धकारको पास कर गया। जैसे समुद्रमे सोताखोरको टटोलते-टटोलते मोतीकी खानि मिल जाती है, इसी प्रकार शास्त्ररूपी समुद्रसे विचाररूपी अमूल्य रनोंकी खानि सोजते-खोजते हाथ लग गई, जिनको विवेकरूपी धागेमे पिरोकर हमारे यात्मदेवने अपने काठमे धारण किया। सो विचाररूपी रन वह हैं :
एक दूसरे श्राश्रय और दूसरा पहले श्यामय, इससे अन्योऽन्याधय पडोई 1 अन्योऽन्याश्य वस्तु अपना कोई आश्रय न होने से भ्रमरूप ही होती है। वो तु में ब्रमम्प ग अपने मन श्राश्रय होता है, सर्पशान के सिगार मां और कोई प्राधय नदी । तया मनान गो मर्पके ही मात्रय स्लिाइन प्रकार ज्ञान एक दुसरे अन्योन्याय होनेसे दोग का मामला है।