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[ साधारण धर्म आत्मदेवने तीनो कृपाओंको यथार्थरूपसे आलिङ्गन किया है ओर विचाररूपी मित्रसे गाढ़ मित्रता की है। इस प्रकार विवेक, बैराग्य, शमादि-पट्सम्पत्ति और मुमतारूप साधन-चतुष्टयद्वारा बुद्धिरूपी पात्रको निर्मल करके शालरूपी कामधेनुको दुहा गया तो क्षीर-समुद्र उमड़ आया और विचाररूपी मानीसे मथन किया गया तो अमृतका समुद्र बह निकला । योगवाशिष्ठ लीलोपाख्यानने संसारको लीलारूप ही सिद्ध कर दिखाया। लवण, गाधि, विपश्चित् तथा शिलोपाख्यानने देश-काल-वस्तुकी स्वसत्ता ही लुप्त कर दी । सम्पूर्ण देश-काल-वस्तुरूप विकार व परिच्छेदोगे एक निर्विकार, अपरिच्छिन्न,सजातीय-विजातीय-स्वगत त्रिविधभेदशून्य सत्ता ही मनको भा गई। सदाशिव-वासिष्ठसम्बादने तो ऐसा रंग जमाया कि वास सगुण-पूजा चित्तसे दूर होकर बोध, साम्य और +शम केवल इन तीन पुष्पोद्वारा ही शिवार्चन मनमें खुब गया और मस्ती देने लगा। विचारमागर सागररूप ही सिह हुश्रा । अधदेवो स्वारने आँखे खोल दी और अपने
* मेद तीन प्रकारका होना है --(१) सजातीय भेद, जैसे एक मनुप्यन्यक्तिका दूसरे मनुष्यव्यक्तिने भेद है, मनुष्यत्वजाति दोनों में एक है, परन्तु व्यक्तिभेद है । (२) जातीय भेदवालेको विजातीय भेद कहते हैं, जैसे मनुष्य का अवसे विजातीय भेद है । (३) एक ही व्यक्तिमें अभेदको स्वगत भेद कहते हैं, जैसे हाथका पावसे स्वगत भेद है। सर्व प्रपय त्रिवित्र मैदवाला है, परन्तु परमात्मामें तीनों भेदोंका अभाव है।
यथार्थ ज्ञानको कोष कहते हैं, अर्थात् आत्मतत्त्वको ज्यूका त्यूँ । जानना ! 4 उस तत्त्वको सर्वमै परिपूर्ण,देखना। *चितको निवृत्त करना और श्रात्मतत्त्वसै भिन उर्छन फुरना। . .