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आत्मविलास]
[१४० द्वि० सण्ड तथा आत्मज्ञानम दृढतम निष्ठा भी नहीं होती। श्रीमानेश्वर महाराज कहते हैं :___ "समग्र वेद-शास्त्र पढ डाले, योगादिका भी खूब अभ्यास किया, पर इनकी सफलता तभी है जब श्रीगुरुकृपा हो। कमाई तो अपने ही परिश्रमकी होती है, तथापि उसपर जवतक श्रीगुरुकृपाकी मोहर नहीं लगती तवतक भगवानके दरबार में उसका कोई मूल्य नहीं होता । अत्यन्त सूक्ष्म व विशुद्ध बुद्धिद्वारा ज्ञान प्राप्त होनेपर भी सूक्ष्म अहकार सद्गुरुके चरण गहे मिना निशेष नष्ट नहीं होता। श्रीराम व श्रीकृष्णको भी श्रीगुरुचरणकमलोंका आश्रय लेना पडा, तव औरोकी तो बात ही क्या है ? वेद, शास्त्र, पुराण और सन्त सभी इस विषयमें एकस्वरसे कहते हैं कि सद्गुरु मनुष्य नहीं हैं, साक्षात् ब्रह्मके अवतार हैं। उनके आशीर्वाद बिना जिज्ञासुकी कमाई सफल नहीं है। जिस प्रकार भोजन-सामग्री सभी विद्यमान है, परन्तु पकानेवाला न हो तो क्षुधा निवृत्त नहीं होती, सामग्री रहते हुए भी क्षुधातुर रहना पड़ता है। इसी प्रकार साधनचतुष्टयसम्पन्न भी जिज्ञासु हुआ, परन्तु सद्गुरु बिना आवागमन नहीं छूटता। इसलिये 'शाब्दे परे च निष्णाते ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्' ऐसे सद्गुरुकी शरण लेनेको भागवरकारने कहा है। गीताका वचन है 'तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया 'आचार्यवान पुरुषो वेद' इस प्रकार
आत्मवेत्ता महापुरुषके चरण गहनेको वेदोंने कहा है। जगद्गुरु श्रीमत् शङ्कराचार्यकी आज्ञा है :पडङ्गादि वेदो मुखे शास्त्रविद्या कवित्वादिगधं सुपचं करोति। गुरोरंघ्रिपद्मेमनश्चेत्र लग्नंततः किं ततःकिंततःकिं ततः किम । अर्थात् पडलादिवेद व शास्त्रविद्या जिसके मुखमें है और गध