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आत्मविलास]
[१३६ द्वि० खण्ड पारस बताया कि कुछ न पूछो । इसपर खूबी यह कि जरा आँच भी तो न लगने दी, इस सफाईकी उपमा नहीं मिलती।
- भजन:मैं वारीजाऊँसन्गुरुकी, जी मै बलिहारीजाऊँज्ञानी गुरुकी (टर) मेरा किया भरम सघ दूर, मैं वारी जाऊँ सतगुरुकी ॥१॥ सतगुरु मेरा ऐसा हुआ जी, ज्यू दिवताकी लोय । आई पडोसन ले गई जी, दिवलारो दिवला जोय ||२(टर) मन धोवी तन कापडा जी, सुरता साचुन होय । शील-शिला मेरा सतगुरु बैठा, सब रग दिया है वोय ॥३॥ (टर)
भजनका पक्तिवार पर्थ :--(१) मैं सद्गुरुपर वारी जाता हू और उन मानी गुरुपर बलिहारी जाता है, जिन्होंने मेरा सर प्रम दूर कर दिया। अर्यात मैं अपने आपको अजान करकै क्र्ता-भोक्ता जीव मानकर संसारचक्रम
म रहा था, वह कर्तव-भोक्तृत्व श्रम दूर करके सभी कर्मवन्मनोंको भस्म कर दिया, ऐसे सद्गुष्पर मैं बलिहारी जाता हूं।
(२) जिस प्रकार पडोलन अपने दीपकको दूसरी पडौसनके प्रज्वलित दोपकसे जोडकर चली जाती है तो इससे पूर्व प्रज्वलित दीपक कोई न्यूनता नहीं आती और वह अपने समान ही दूसरे दीपकको प्रज्वलित कर देता है। इसी प्रकार मेरे सद्गुरु दीपककी लौ के समान स्वयं प्रकाश हैं, जो कि अपने संसर्गमें आये हुएको अपने समान ही प्रकाशमान कर देते हैं और श्राप ज्यू 'के न्यू रहते है। ऐसे सद्गुस्पर में बलिहारी जाता हूं।
(३) मोनकी नीव जितासावाला मन धोनेवाला बोची है, सन अर्थात् शरीर बौनेयोग्य वत्र है जो अनेक विकारोंका घर है और अन्तर्मुखी आत्माकार-वृत्ति माबुन है । अर्थात् पहिमुखी-वृत्तिद्वारा इस देहम ही आत्मवृद्धि हो रही थी और यही सर्व पुण्य-पापादि मल-विकारोंका हेतु था, उसको दूर । करने के लिये जो श्रात्माकार अन्तम सी-वृत्तिरूपी साधुन दिया गया तो देहोऽह'