________________
आत्मविलास
[११२ द्वि० खण्ड संख्या नाम अध्याय
राख्या नाम माग १५ पुरुषोत्तमयोग १७ श्रद्धात्रयविभागयोग १६ देवासुरसपट विभागयोग । १८ मोक्षसंन्यामयोग
इससे स्पष्ट है कि संकल्पमे 'योग-शास्त्र से निष्काम कर्मयोगशास ही नहीं, बल्कि वह शाल अभिप्रेत है जो परमात्माके साथ मेल करानेवाला अर्थात सम्बन्ध जोदनेवाला है और यही अर्थ श्रेष्ठ है। जब 'योग' शब्दका व्यापक अर्थ प्राप्त है. तय उसकी व्यापकताको भन्न करके एफदेशी अर्थ लगाना तो भूल है और भगवद्वचनके महत्त्वको घटाना है।
तिलक-मतके प्रत्येक अक्ष्पर भिन्न-भिन्न विचार किया उपसंहार गया। तिलक महोदयद्वारा निवृत्तिपक्षमे जो दोप दिया गया, उनका परिहार हम स्थलपर हमारे द्वारा जरूरी समझा गया। शेपमें तिलक महोदयकी व्यक्तिके विपयमे तो कुछ कहना, सूर्यको दोपकसे दिखलाने के तुल्य है। प्रकृतिका यह नियम है कि जब-जब संसारखे देशगत अथवा समाजगत कोई विशेप क्षति उत्पन्न होती है, तब-तब उस अशम होनेवाली क्षति की निवृत्ति के लिये उस देश व समाजने ईश्वरीय अशसे किसी न किसी रूपमे विशेष शक्तिका प्रादुर्भाव होता रहता है, जो उरा सुधारके निमित्त ही अवतीर्ण होती है और उसी सम्बन्ध
अपना पिंचित्र चमत्कार दिखला जाती है। जिस प्रकार शरीरके - किसी अजमे कोई क्षत उत्पन्न होता है तो शारीरिक-प्रकृति स्वयं
भीतरसे उस क्षतकी पूर्तिका साधन करती है, डाक्टर लोग इस विषयको भली-मॉति जानते हैं। ठीक, यही व्यवस्था प्रकृतिको देश व समाजवपुके सम्बन्धमे है। जिस प्रकार निकटवर्ती कालम जब हिन्दू समाजपर ईसाईयो व यवनोका आक्रमण था, तब , उस समयको आवश्यकतानुसार स्वामी दयानन्दजीद्वारा हिन्दू