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आत्मविलास
[११४ • वि० खण्ड परपरा करके उस परमतत्त्वमें प्रवेश करके इन मव उतारचढ़ाचोमे मुक्त करानेसे ही है।
इसी उद्देश्यके अनुसार देशसेवा भी प्रात्मविकासका एक उपयोगी साधन है और तिगत स्वार्थमे ऊँचा ठकर देशस्वार्थतक स्वार्थका विकास पा जाना, एक श्रेष्ठतर उन्नति है। परन्तु यही जीवनका परमलक्ष्य है उससे आगे और कुछ है ही नही' यह हमारे लिये मन्तव्य नहीं है। हमारा कथन तो यह है कि हाँ, यह भी एक उच्च सोपान है, परन्तु निर्दिष्ट-स्थान यही नहीं हैं। यह बात ध्यानमें रहे कि देशसेवाके पात्र भी वही होंगे जिन्होने अपने व्यक्तिगतस्वार्थ, कुटुम्यस्त्रार्थ और जातीयस्वार्थ की बलि पहले दे छोडी हो । परन्तु लो अभी इन नीचे स्वार्थोमे ही कहीं अटके हुए है, वे देशसेवाके भी अधिकारी नहीं हो सकेंगे। यह माना कि देशस्वराज्य भला है, परन्तु अपने स्वरूपसे ही यह राग-द्वेप और जन्म-मरणसे छुटकारा दिलानेवाला नहीं हैं। इस देशभक्तिके द्वारा स्वार्थका विकास तो हुआ, परन्तु निस्वार्थता अमी नहीं आई, देश-स्वार्थके साथ अभी बन्धन है ही। जिस प्रकार रेलगाडी दिनभरमें सैंकडो मील तो दौड जाती है परन्तु लाइनके साथ बँधी हुई हैं, लाइन छोडकर एक इश्य भी नहीं चल सकती। इसी प्रकार स्वार्थ चाहे कितना भी उच्चकोटि: का हो परन्तु है स्वार्थ ही, लाइनके समान जीवका अपने स्वार्थ के साथ बन्धन अपश्य रहता है। और जबतक किसी भी अशमें स्वार्थ है, राग-द्वेप व जन्म मरण आदि विकारोंसे छुटकारा नहीं हो सकता, रहेगा यह स्वार्थ बन्धनरूप ही। वास्तवमे तो इन राग-द्वषादि विकारों से मुक्ति तभी होगी, जबकि यावत् ईश्वर सृष्टिपर हमारा स्वराज्य होगा, हमारी आँखें खुलनेपर संसारकी उत्पत्ति तथा ऑखें बन्द होनेपर संचारका प्रलय. स्वतःसिद्ध है
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