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[ साधारण धर्म भीतरसे यह सब विकार निकल रहे हैं। भला । देखो तो सही, जो व्यक्ति जीते ही मर गया है और मरके भी अमर हुमा है, उसको स्वार्थपरायण व कृतघ्न कहना कैसासुफेद झूठ है। जिसने शरीरसम्बन्धी सर्व स्वार्थोंकी तिलाञ्जलि दी और संसारके लिये अपने शरीरको भी खाद बना दिया, वह तो पूर्णरूपसे स्वार्थत्यागी है न कि स्वार्थी । द्वैपकी मूल राग है, रागसे ही द्वेषकी उत्पत्ति होती है। जब हम परिच्छिन्न-दृष्टि धार शरीरसम्बन्धी स्वार्थको बनाये रखकर कुछ पदार्थोंमें ममत्व करते हैं, तब ममत्व के विषय जो पदार्थ है उनमे रागकी उत्पत्ति होती है। और प्रकृतिदेवीकी यह नीति है कि जहाँ हमने स्वार्थष्टिसे दो-चार पदार्थोंमे राग किया, वहाँ ही उनसे भिन्न पदार्थोंमे द्वेष उत्पन्न हो जाता है और हृदय तपने लगता है। अर्थात् अपने हृदयगत प्रेमको स्त्रीपुत्रादि दो-चार पदार्थों के साथ जोड़कर जब हम इसे सीमाबद्ध कर देते हैं, तब यह गंदला हो जाता है और इसमें द्वेषरूपी सड़ॉद पैदा हो जाती है। परन्तु वैराग्यकी यह बढ़ी-चढ़ी अवस्था तो बी-पुत्रादिगत प्रेमकी सीमाको तोड़कर इस पवित्र प्रेमके प्रवाहको सब ओरसे खुला कर देती हैं, जिससे सम्पूर्ण भूतप्राणियोंके प्रति हमारा हृदयगत प्रेम विकसित हो जाता है। इस प्रकार इस विषमताके निकल जानेसे क्या सम्बन्धी और क्या असम्बन्धी सबको हम समतापूर्ण प्रेम प्रदान कर सकते हैं
और इस अवस्थापर पहुँचकर ही 'वसुधैव कुटुम्बकम्' भाव पूर्णरूपसे जागृत हो सकता है, यथा :
माता च कमलादेवी पिता देवो जनार्दनः । बान्धवाः विष्णुभक्ताश्च निवासो भुवनत्रयम् ॥ अर्थात् लक्ष्मीदेवी ही हमारी माता है, विष्णुदेव ही हमारे