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आत्मविलास]
[१३० द्वि० सण्ड अग्निकी ज्याला नीचे को और जलफा प्रयाह उपरको वहन लगे यह असम्भव तो सम्भव हो जाय, परन्तु सत्यनापूर्ण त्याग किसीकी हानि हो, यह सम्भव नही । 'पाजनक कोई ऐसा दृष्टान्त देखने-सुननेमें नहीं आया कि जो किसीके परमार्थपरायण होनेसे उसके पीछे सम्बन्धियोको हानि पहुँची हो । किनी वस्तुका हानि. लाभ केवल परमार्थदृष्टिसे ही प्रमाण किया जा लाता है कि वह हमारे परमार्थको वनानेवाला है या विगाउनेवाला । सांगारिक दृष्ठिसे हानि-लाभका प्रमाण करना तो अति तुच्छ दष्टि है। वस्तुतः इस त्यागमे तो इतना बल है कि इसके सम्बन्धसे सम्बन्धियोंकी व्यावहारिक हानि भी असम्भव है, फिर पारमार्थिक लाभका तो अन्त ही क्या है ? यदि इस त्यागके सम्बन्धले किसी सम्बन्धीको कष्ट भान होता है तो वह ऐसा ही है, जैसे किसी पके हुए फोड़ेमें चीरा लगानेसे कुछ समयके लिये कष्ट प्रतीत होता है, परन्तु पीप निकल जानेपर पूर्ण शान्ति मिलती है। जिसको तुम घरका देना कहते हो यह चिरका नहीं, बल्कि अपने पवित्र श्राचरणोसे सम्बन्धियोकी एक ऐसी सच्ची व ठोस मेवा है जो दूसरोसे अनेक जन्म धारकर भी नहीं हो सकती। जो आम्रफल पककर वृक्षसे गिर पड़े, आप भीग निकले और दूसरोको मिठाम दे, वह तो परम उपकारक है न कि कृतघ्न । किसी भी मनुष्यका एक चारदीवारीके अन्दर उत्पन्न होना तो श्रावश्यक है, परन्तु उसी चार-दीवारीमें रहकर मर जाना तो घोर पाप है और कवरमें सड़-सड़कर मरनेके तुल्य है। अब कहिये, क्या यह कृतघ्नता है ? आप तो स्वय हमारे आत्मदेवके चरित्र देख चुके हो, फिर प्रत्यक्षको प्रमाण क्या जिसने उसके चरित्रोसे और उससे प्रेम किया वही अमर हुआ। परन्तु अपनी दोषदृष्टि करके तुम उसके आचरणोंको अपने हृदयमे ठहरने नहीं देते, इसीलिये तुम्हारे