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आत्मविलास-]
[१२८.. द्वि० खण्ड मोक्षद्वार है इसके द्वारा भगवानको प्राप्त किया जा सकता.है, यही एकमात्र इस शरीरकी बड़ाई है। भगवान रामचन्द्रने राज्यसिहासनारूढ़ होने के पश्चात् एक बार अपनी प्रजाको आह्वानकर क्या हो सुन्दर उपदेश किया है। चौद-बड़े भाग्यमानुप तनु पावा। सुरदुर्लभ सग्रन्थन गावा ।।
साधनधाम मोक्षकरद्वारा पाइनजिहि परलोक संवारा!! सो परत्र दुःख पावहि, शिर धुनि धुनि पछिताहि ।
कालहिं कर्महि ईश्वरहि, मिथ्या दोप लगाहि ॥ इह तनु कर फल विषय न भाई । स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुःखदाई ॥ नर तनु पाय विषय मन देही । पलटि सुधा ते शठ विष लेही। नर तनु भव वारिधि के वेडे । सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरे ।। कर्णधार सद्गुरु दृढ़ नावा । दुर्लभ साजसुलभ करि पाँवा ।।
जेन तरें भवसागरहि, नर समाज अस पाय ।
सो फुतनिन्दक मन्दमति, पातमहनि गति जाय ॥ भगवान् वशिष्ठ भगवान रामचन्द्र के प्रति उपदेश करते है :-.. अत्राहाराणे .कर्म कुर्यादानिन्ध,
___कुर्यादाहारं प्राणसंधारणार्थम्। प्राणं संधारयात्तत्त्वजिज्ञासनार्थ, तत्त्वं जिज्ञास्यं येन भूयो न दुःखम् ॥
(योगवाशिष्ठ). अर्थ:-इस संसारमें अहारके लिये अनिन्दित कर्म कर्तव्यहै (निन्दित नही), प्राणरक्षणार्थ श्रहार कर्तव्य है (मोगार्थ नहीं),
और प्राणरक्षा तत्व-जिनासाके लिये कर्तव्य है (किसी सांसा.. रिफ यशके लिये नहीं) इस प्रकार जिसने तत्त्वको खोन कर ली केवल इसीके लिये दुखोसे छुटकारा है।