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आत्मविलास]
[१२६ द्वि० खराद्ध जगलमें भ्रमण करना उचित नहीं है। इसपर सब गोपियोने एकस्वरसे-भगवानके चरणोंमें विनम्र प्रार्थना की, "हे नाथ! आपका कथन उचित है, परन्तु इस स्थलपर हमारी एक शक्षा है, आप कृपाकर उसका समाधान करें, फिर जैसी आपकी आज्ञा होगी हमारे लिये वही कर्तव्य होगा।" वह शहा यह है कि एक पतिव्रता पति-सेवापरायण थी। कालवशात् पतिको देशान्तर गमनकी इच्छा हुई तो उसने अपनी पत्नी से अपना मनोरथ प्रकट किया। स्त्रीने रोकर कहा, "हे स्वामी | मेरा जीवन आपके आधार है, मैं
आपको भोजन कराके आपका प्रसाद लेती हूँ, फिर आपके बिना मेरे जीवनका श्राधार क्या हो सकता है "पतिने उसको अपनी एक मूर्ति बनाकर दे दी और कहा कि इसको तू मेरा रूप जानं विधिपूर्वक मेरे आनेतक इसकी सेवा करना । ऐसी आज्ञा देकर पति देशान्तरको चला गया और वह पतिव्रता उस मूर्तिकी यथाविधि सेवा करती रही । काल पाकर पति अपने घरको लौट श्राया। गोपियों पूछती है, "हे चित्त-चोर "आप आज्ञा दीजिये कि उस सती-स्त्रीको अब कौनसे पतिपर अपना आधार करना चाहिये ? पतिकी मूर्तिपर अथवा सच्चे पतिपर ' इसी प्रकार पत्तियोंके.पति सच्चे पति जब आप हमसे खोये हुए हमको प्राप्त • हुए हैं, तब अब हमको किसकी शरण लेनी चाहिये ? आपकी
मूर्तिरूप उन पतियोकी शरण लें या आप सच्चे पतिकी भग'वान् गोपियोंके अवधिरूप प्रेमपर चकित हुए और कुछ उत्तर न
दे सके । ठीक तो है, उत्तर क्या देते १ गीताके अन्तमें बचन तो हार धूठे हैं, उत्तर देनेका मुंह कहाँ ? भला, सत्य भी कहीं छुपा - सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । .. . .अईस्वासर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥ ,
(गी. अ. १८लो. ६६)