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आत्मविलास ]
द्वि० खण्ड ' भाषामें 'राम' शब्दका अर्थ 'गुलाम' किया जाता है, वैसे ही ' तुम भी इस कोमलताका अर्थ अपनी भापामे कठोरता करने लग पडो। परन्तु वास्तवमे तो इसका चित्त अत्यन्त कोमल और अत्यन्त निर्मल है -
मन ऐसो निर्मल भयो जैसे गहानीर। पीछे-पीछे हर फिरत कहत कबीर-कबीर ।।
अब हमको देखना है कि सासारिक सम्बन्धोंको बनाये रखना कृतघ्नता और स्वार्थपरायणता है, अथवा इनसे ऊँचे किसी अन्य सम्बन्धको जोडनेके लिये इनका तोड़ डालना' यह वात भली-भाँति समझमे आ जानी चाहिये कि संसारमे जितने भी मम्वन्ध हैं और जितने भी धर्मके अङ्ग है, अर्थात् मातृभक्ति, पितृभक्ति, भ्रातृभक्ति, पतिसेवा, गोसेवा, पन्नीसेवा, गुरुसेवा, । कुटुम्घसेवा, जातिसेवा, देशसंवा इत्यदि, इन सबका साक्षात फल स्वार्थत्याग व अन्तःकरणकी दवताद्वारा केवल इश्वरके सम्मुख होना है और इन धार्मिक सम्बन्धोद्वारा उसीसे सम्बन्ध जोड़ना है। ये सब भक्ति व सेवा उस साक्षात फलकी उत्पत्ति निमित्तमात्र है, इनका अपना और कोई फ्ल नहीं। ये सब सम्बन्ध उसी समयतक हमारे लिये पुण्यरूप हैं, जबतक उस साक्षात् फलकी उत्पत्तिमें सहायक हैं। परन्तु जब किसी अवस्था पर पहुंचकर ये सासारिक सम्बन्ध उस साक्षात् फलकी उत्पत्तिम सहायक न रहें अथवा विरोधी हो जाएँ, तव इनका जोड़ना पुण्यरूप न रहकर तोडना ही पुण्यरूप सिद्ध होता है। प्रकृतिदेवीकी नीति कुछ ऐसी ही विलक्षण है कि एक अवस्थामें जो वस्तु पथ्य होती है, अन्य अवस्थामें वही कुपथ्य हो जाती है। • किसी अवस्थामें पाचक द्रव्य पथ्य है और रेचक कुपथ्य, किन्तु कालान्तरमें भिन्न अवस्था प्राप्त होनेपर पाचक कुपण्य सिद्ध