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[ साधारण धर्म - अर्थात् सर्व धर्मोका परित्यागकर केवल मेरी ही शरणकों प्राप्त हो, मैं तुमको सारे ही पापोसे मुक्त कर दूंगा, सोच मत कर
अजी। ये संसारके सव नाते तो टेलीफोनकी भाँति उससमयतक ही प्यारे थे, जबतक मदनमोहन दूर बैठा हुआ इनके दास अपना प्रेम-सन्देश भेज रहा था। दौड़-दौड़कर, उस समय तक ही इनसे कान लगाया जाता था और उसके नातेसे ये टेलीफोन भी प्यारे लगते थे। परन्तु जव यानन्दकन्द स्वयं ही घर आ.गया तब इन टेलीफोनोसे क्या प्रयोजन ? अव तो ये टेलीफोनकी घंटियाँ प्यारी नहीं लगती, 'अब तो इनसे चित्त उकता.गया। इसी प्रकार यह सांसारिक सम्बन्ध टेलीफोनके रूपमे परम्परासे उसी समय तक उपादेयं थे जबतक उस प्रेममूर्ति से नाता नहीं जुड़ा था और वह हृदयमे नहीं उतर आया था। वास्तवमे तो इनके द्वारा उस प्रेम-मूर्तिसे ही नाता जोड़ना लक्ष्य था। परन्तु साक्षात् जब उससे नाता जुड़ गया तव ये अपने स्वरूपसे उपादेय न रहकर हेय ही सिद्ध होते हैं।' . .
भाई ! जो वीज जिस फलके लिये बोया जाय, यदि वह फल दिये बिना ही गिर जाय तो कृतघ्न है; परन्तु जो बीज बोया हुया फलके सम्मुख हो रहा है उसकोः कृतन्त्र कहनेका साहस कैसे करते हो? मनुष्य-शरीरका फल केवल ईश्वरप्राप्ति ही है, न कि सांसारिक भोग। भोग तो पशु-पक्षी आदि योनियोंमे भी जीवको प्राप्त थे और यह नियम है कि जिसको जिस भोगकी इच्छा है वही उसको सुखदायी होता है। सूकरको अपनी योनि. के भोगोमें जो आनन्द है, इन्द्रके भोग उस समय उसके लिये वैसे
आनन्दरूप नहीं रहते, क्योंकि उसको उनकी इच्छा ही नहीं है। इनलिये भोगदष्टि सूकर व इन्द्रमें कोई भेद नहीं। इसी प्रकार भोगदृष्टिसे मनुष्य शरीरमें कोई विलक्षणता नहीं। मनुष्य शरीर
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