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[साधारण धर्म समाजमें जागृति हुई और उन आक्रमणोंसे हिन्दू-समाजको सुरक्षित किया गया। इसी नियमके अनुसार भगवान तिलकका प्रादुर्भाव भी उन उच्च कोटियोंमेसे ही था और केवल वर्तमानमे गिरे हुए भारतकी देश-जागृतिके निमित्त ही उनका अवतार था। इसीलिये देशसेवाका भाव उनमे पूर्णरूपसे भरपूर था और इस विषयमे उन्होंने अपने तन-मन-धनकी पूर्णाहुति दी थी। वे परोपकारपरायण प्रभावशाली भव्य-मूर्ति थे और कविवर मैथलीशरणके इन वचनोको उन्होंने भली-भाँति चरितार्थ किया था :
बास उसीमें है विभुवरका, है वस सच्चा साधु वही । जिसने दुखियोंको अपनाया, बहकर उनकी बाँह गही ।।
इस प्रकार यद्यपि भगवान तिलकद्वारा पूर्णरूपसे देश-जागृति में भाग लिया गया और केवल इसी दृष्टिको सम्मुख रखकर उन्होंने गीताशाखकी समालोचना की, तथापि प्रकृतिराज्य अपने स्वरूपसे ही अधूरा और पङ्गु है। उसके किसी एक अङ्गमे सुधार का यन किया जाता है तो उसके विपरीत किसी दूसरे अङ्गमें श्राघातकी सम्भावना हो जाती है। सर्वाङ्गपूर्ण यह प्रकृतिराज्य कदापि हुआ ही नहीं और होगा भी नहीं, अपने स्वरूपसे तो यह कुत्तकी पूछके समान ही है, जो कभी सीधी नहीं होती। हाँ, यदि जीव अपने परमपुरुषार्थद्वारा प्रकृतिराज्यसे ऊंचा उठकर उस अपने चारतविक स्वरूपमें प्रवेश करे, जो प्रकृतिका मूल व उद्गम स्थान है, तब वहाँ पहुँचकर उसको यह प्रत्यक्ष भान होगा कि यह सब उतार-चढ़ाव और विगाड़-बनाव वरे ही थे और इन सब भेदभावोंने उसको रंञ्चकमात्र भी स्पर्श नहीं किया था। इसी उद्देश्यको सम्मुख रखकर प्रकृतिराज्यमें जितने भी धर्मके श्रेङ्ग व उपाङ्गोंको रचना हुई है, उन सबका फल साक्षात् अथवा,