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आत्मविलास]
११८ . "द्वि० खण्ड
धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूपणम् ? . अर्थ यह कि यदि करीर (केर) के वृक्षको पत्र नहीं लगते तो इसमें वसन्त-ऋतुका क्या दोप? दिनमें यदि उलूक-पक्षी ही न देखे तो इसमे सूर्यका क्या दोप' तथा चातकके मुखमे धारा नहीं पड़ती तो इसमें मेधका क्या दोष कहा जाय । इसी प्रकार सूर्यके समान प्रकाशमान इस त्यागरूप वैराग्यमे यदि तुमको अन्धकार-बुद्धि हो तो इसमें वैराग्यका क्या दोप?
संसारमें कडवा क्या है ? 'फड़वा करेला और नीम चढ़ा' की मॉति संसारमे उलझे हुए इस मनके समान और कौन वस्तु कड़वी हो सकती है। जो पाठ प्रहर चौसट घड़ी ससारमें फंसा हुआ, सर्पकी भॉति शरीररूपी विलमे बैठा हुआ राग-द्वेषरूपी फुन्कार मार रहा है, अपनेको और इस बिलको दोनोंको जला रहा है और गैरव-नरककी तैयारियाँ कर रहा है। यहाँ भी जलना और वहाँ भी जलना । जो वासनारूपी रस्सीसे बंधा , हुआ घटीयन्त्रके समान संसार-चक्रमें नीचे-ऊपर भटक रहा है
और सकल्योके जालमे फंसकर जिसकी 'ज्य भरक्ट तरु ऊपर . चढकर डार-डार पर लटकत है' की गति बनी हुई है। भला, इसके समान कडवा और क्या होगा, जहाँ अपनी चेष्टामोद्वारा . नीचे लिखे वचनोको भली-भाँति चरितार्थ किया जा रहा है :
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् । इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥ असो मया हतः शवहनिप्ये चापरानपि । ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥ आयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योस्ति सदृशो मया।