________________
श्रामविलास ]
[१२० द्वि० खण्ड
'हम अमुक' 'तुम अमुक' 'इसमे मेरा हिस्सा ।" कहे गिरधर कविराय बुद्धि भई नख-शिख सोगी, विना पित्त कफ वाय भयो परमेश्वर रोगी॥ अर्थान् चेतन-पुरुषको इन सब अवस्थाओकी प्राप्ति एकमात्र इस कड़वे-करेले मनके सम्बन्धसे ही है। अपने-आपको शरीर व मनसे बड़ा माननेवाले ये भोले-भाले कितने तुच्छ हो गये हैं। शरीरका मान पानेके लिये दर-दर श्वानके समान भटकते फिरते हैं और सर्वदा चित्तमें भयभीत रहते हैं। जरा इनके चित्तोको तो देखो, क्तिने हलके हैं ? जिस चित्तमे कामनाएँ भरपूर है वह भारी-भरकम कहाँ ? उसमे बड़ाई कैसी? जिसमे कामनाएँ है वह तो दरिद्री है, भिखारी है और उसकी वही गति होती है जो जलमे पड़ी हुई एक तुम्बीकी । हॉ भाई । वड़ तो तुम हो, बल्कि घड़ोसे भी बड़े हो, परन्तु अपने स्वरूपको भुलाकर और शरीररूपी कारागारमें बंधे रहकर बड़े बनना चाहते हो, इसके समान तुच्छता और क्या होगी ' खुशीके दिन तो उसी दिन पीठ दिखा गये जिस दिन तुमसे यह भूल हुई । अव प्रकृतिका नियम भङ्गकर शरीरसे बडा बनने के पीछे पड़े हो। याद रक्खो, ब्रह्माकी
आयुपर्यन्त भी तुम इसमें सफल-मनोरथ न हो सकोगे और जब कभी भी सत्यतासे अपने-आपमें प्रवेश करोगे, अपनेको ठगा हुश्रा ही पाओगे। शरीर व मनके सम्बन्धसे जो जितना बड़ा वनेगा, उतना ही उसको छोटा बनना पड़ेगा। क्योकि शरीरका अभिमान जितना अधिक हद होगा, उतना ही काम-क्रोध व राग-द्वेपकी लाते और मुक्के सहने पड़ेंगे और उतना, ही वह अपने आत्मस्वरूपसे दूर पड़ता चला जायगा। इस प्रकार संसारमें फंसा हुआ मन ही कड़वेसे कडवा है।
इसके विपरीत हमारे इस मजनको तो देखो, कितना शान्त