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आत्मविलास]
[ लोकसंग्रह चलानेका पात्र ही नहीं।लोकनंद तो उम विद्वानद्वारा फेवल तभी सिद्ध हो सकता है, जबकि उनकी प्रत्येक चेष्टा मी प्रकार स्वाभाविक सत्यतापूर्ण व शिक्षाप्रद हो जाय, जैसे नेत्रोंका खोलना मून्दना और मालोका बहना सामाधिक होता तिलक महोदय का जीवन केवल प्रवृत्तिपरायण रहा, इस लिये वे फेयता प्रवृत्तिमें ही लोकसंग्रहको भले ही भीमावद कर परन्तु बदि वे थोड़ा पीछे मुड़कर देखते तो उनको ज्ञात होता कि नियुत्तिद्वारा कितना कुछ लोकसंग्रह सिद्ध हो चुका है और हो रहा है। बल्कि 'प्रवृत्तिद्वारा यह शान्ति व स्वराज्य स्थापन नी हो सकता जो निवृत्तिद्वारा स्वाभाविक सिद्ध हो जाता है। इसके लिये हमको प्राचीन बालक सनकादिक व शुक्रादिकोपर दष्टि डालनेकी जरूरत नहीं, बल्कि निकटवर्ती कालके श्रीकधीर देवजी, श्रीगुरुनानकदेवजी, गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी, श्रीस्वामीरामदासजी, श्रीज्ञानदेवजी, श्रीदादूदयालजी और श्रीरामचरणजी के जीवन तथा वर्तमान काल के श्रीस्वामी विवेकानन्दजी, श्रीस्वामी रामतीर्थजी और श्रीस्वामी मगलनाथजी आदिके जीवन इसके ज्वलन्त दृष्टान्त हैं। जिनके आचार व विचार मुर्दोमे भी प्रापसचार कर देते हैं । वल्कि सस्य तो यह है कि प्रवृत्तिद्वारा नो लोक्साह सिद्ध होगा वह केवल भौतिकसुखको ही देनेवाला होगा, सच्ची शान्ति प्रदान करने में निवृत्तिरूप लोकसंग्रह ही एकमात्र साधन है। तिलक महोदयने कहा है कि सन्यासी कहते हैं 'कर्तव्य शेष नहीं, कुछ न कर।
और गीता कहती है 'पर्तव्य शेष नहीं, अनासक्त बुद्धिसे कर। वास्तवमें कहना पडेगा कि तिलक महोदयने कर्तव्य अशेष' का भावार्थ ही न सममा । 'क्तव्यशेप नहीं के साथमें न तो संन्यास का ही ऐसा मत है कि 'कुछ न कर' और न गीता ही ऐसा कहती है कि 'अनासक्त बुद्धिसे कर। यदि 'कुछ न कर यह विधि लगाई