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[साधारण धर्म है कि जब-जब हृदयमे द्वेषभाव भरा गया, हृदय तपा और बल घटा और जव-जव त्यागभाव हृदयमे आया, शान्ति मिली और क्लवृद्धि हुई । द्वेष तो आपको अपने विरोधियों के प्रति भी त्याज्य है, फिर अविरोधियोसे तो द्रुप कैसा? आप तो शक्तियोकी मूल जो त्याग है, उसपर ही कुल्हाड़ा रखने लगे । वास्तवमं बडी मूल यही है कि अपने भीतर कूड़ा-कचरा भरा रखकर बाहरकी सफाई की जाय तो हो नहीं सकती और यदि अपना भवन वुहार लिया जाय तो बाहर स्वतः ही सफाई हो जाती है।
'उपयुक्त व्याख्यासे यह स्पष्ट है कि संन्यास-आश्रमका मूलहेतु, जैसा कि तिलक महोदयने कहा है, यही नही,था कि युवा., लड़कोकी बढ़ी-चढ़ी उमङ्गोके आड़े न पाया जाय तथा इस विचारसे कि वृद्ध अवगृहस्थके किसी कार्यके योग्य नहीं है और नवयुवकोंकी स्वतन्त्रतामें यह बाधक है, केवल इसीलिये उसको इस वृद्धावस्था में गृहस्थ से निकलकर अपने हालपर निर्भर रहना चाहिये। यदि इस आश्रमका आशय इतना ही समझा जाय, तब तो यह एक भारी धृष्टता होगी और धर्मकी सारी उदारता ही लुप्त हो जायगी। मनुष्य सम्पूर्ण जीवनभर तो कोल्हुके बैल की भाँति गृहस्थके भरण-पोपणमे लगा रहे और बाल्यावस्थामें पुत्रोंकी तुच्छसे तुच्छ सेवा करता रहे, परन्तु वृद्धावस्थाके प्राप्त होनेपर वही पुत्र अपनी सेवाके पुरस्कारमे अपने 'पिताकी यह सेवा करें कि 'अब हमको तुम्हारी जरूरत नहीं, अब तुम अपना रास्ता लो और हमारी उमङ्गोंके आड़े न आओ।
दाँत हिले और खुर घिसे, कन्धा वोम न लेय। . ऐसे : बुट्टे पैलको, कौन बाँध भुस देय ॥ । धन वचनोंके अनुसार उसको उसके हालपर छोड़ देना, यह तो बड़ी आश्चर्यजनक वाता है ! जिस धर्ममें ऐसी' स्वार्थपरा