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[ साधारण धर्म विना देशरूपी शरीर शवके समान निलीव हो जायगा। क्या देश, क्या व्यक्ति, जिस किसीको, जब कभी, जितनी कुछ सफलता प्राप्त हुई है, उसका हेतु उतनी ही मात्रामे 'त्याग' अवश्य होना चाहिये । इसके बिना सफलता 'नासीदस्ति भविष्यति' ही सिद्ध होगी, अर्थात् न हुई है, न है और न होगी। क्या केवल रजोगुणकी वृद्धिद्वारादेशकी उन्नति सम्भव है ? कदापि नहीं। रजोगुणकी वृद्धिका ही यह प्रभाव है कि आजकल देशमें अधिभौतिकस्वतन्त्रताका कोलाहल चहुँ ओरसे मचता चला आ रहा है। अर्थात् प्रत्येक जाति व व्यक्ति शरीरों और मनोंसे आजादी प्राप्त करनेके लिये परस्पर संग्राम करते दिखाई दे रहे है। क्या स्त्रीसमाज, क्या मनुष्य-समाज, क्या मजदूर-दल, क्या अन्त्यज
और क्या धनी, सभी जाति, व्यक्ति व सम्प्रदाय व्याकुल हो रहे हैं कि हम शरीरोध मनोसे आजाद हो और हमारे मन-माने व्यवहार व भोगपरायणतामे कोई भाड़ न रहे। परन्तु क्या यह आजादी है, क्या यह देशमे शान्तिस्थापन कर सकती है ? हरगिज़ नहीं। आजादीके नामपर इस बन्धनके लिये और शान्तिके नामपर इस अशान्तिके लिये दुहाई है । वास्तवमे अध्यात्मिक स्वतन्त्रता व अध्यात्मिक-शान्तिद्वारा ही सच्ची स्वतन्त्रता और सच्ची शान्ति प्राप्त की जा सकती थी और वह सात्विक त्यागके हिस्सेमे ही पाती है। परन्तु उस सात्त्विकत्यागं और अध्यात्म-विद्याको कुचलकर केवल रजोगुणी साइन्सद्वारा आजादी ढूँढना तो खपुष्पके समान है। वर्तमान योरुपदेश इसका ज्वलन्त दृष्टान्त है। जिस रजोगुणी साइन्सद्वारा
आर्थिक उन्नतिको ही आजादी माना गया था, यही बढ़ी-चढ़ी साइन्स आज विचित्र रूपसे युद्धकी कला-कौशलका साधन बन रही है और सम्पूर्ण संसारमें अग्निकाण्डकी सम्भावना करा