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[साधारण धर्म संयाके मूलमे भी तो स्वार्थत्यागके द्वारा 'आत्मकल्याण' ही है
और इसमे ऊँचे उठकर वस्तुतः आत्मश्रेय साध लेना ही मुख्य लक्ष्य है। परन्तु आप तो इस पड़ावको ही मजिल मान बैठे कि यम, इससे आगे और कुछ है ही नहीं। इस प्रकार उल्टा पीछे मुडकर देखने लगे और मच्चे धर्मके प्रति द्वेष करने लग पड़े। परा होशमें आओ, अपने अन्दर प्रवेश करके देखो, यह तो उल्टी चही चल पड़ी, आत्म-कल्याएके स्थानपर आत्म-अकल्याण होने लग पड़ा। ऐप तो अपने विरोधियोंके प्रति भी निन्दित है, फिर सच्चे त्यागके प्रति हेप तो आश्चर्यरूप हैं जिसका किसीसे भी द्वेष नहीं।
इससे हमारा यह प्राशय नहीं कि नाटकघरमे एक्टरफे ममान सबको ही तुम्बी ले लेनी चाहिये । कदापि नहीं, यह तो उल्टा हानिकारक है । परन्तु धर्मकी उपयुक्त कक्षाओसे इसी जन्ममें अथवा भूत जन्मम उत्तर्ण होते हुए और त्यागको भेटे -'वैताल' को अर्पण करते हुए जिनमे त्यागको लाती फूट निकली है और रोके रुमा नहीं सकती, उनके लिय तो मनु आदि सभी धर्म-शास्त्र हाथ बाँधे हुए 'जी हुजूर बनकर यही वचन कहते हैं। 'यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रनजेत् । हि
REP अर्थात् जिस दिन भी तीव्र वैराग्य हो उसी दिन संन्यास ले - लेवे । परन्तु जिनके अन्दर-यह त्याग नहकाओं को भोग'परायण हैं, उनके लिये भोगोंकी मर्यादा बार मिये नो मणोका बन्धन लगाते हैं कि इन भागामात बोलका ग• परायण रहो और फिर, इन कारणों से भरत नामक इंडा
मारकर कहते हैं कि अथातो तुमको यार होता मिला। भ,मुख्यं तात्पर्य शासकारोत ही लागे