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[साधारण धर्म यही ध्यान में आता है कि मनु अथवा कोई भी धर्म-शास्त्र ऐसे त्यागको मंसार व समाजके लिये अटकाव जान और उसके लिये मार्ग निरोधकर अपने-अापको कलक्ति करेंगे। अधिभौतिक दृष्टि रखनेवाले हमारे अर्वाचीन महोदयगण यह ड्यटी भले ही सॅमाले रक्खें । परन्तु यह किसी प्रकार समझ नहीं आता कि जो घात हमारी सच्ची-सरकार (ईश्वरीय-दरवार) को कबूल है
और जिस भेंटको वह अपनी छातीपर हाथ रखफर सिर-आँखो से स्वीकार करती है, वही वात उसकी प्रजाके लिये हानिकारक वन जायगी। क्या वह सच्ची-सरकार इतनी उन्मत्त हैं और बीटिशादि शासनोके समान इतनो स्वार्थपरायण हैं कि प्रजाकी अनिटकारक चेष्टा उसको अपने लिये इष्ट होगी ? नहीं जी | उस सच्चीसरकारको 'प्रमाद' तया स्वार्यपरायणता' का सर्टिफिकेट हमसे तो नहीं दिया जा सकता। हाँ, हमारे वर्तमान रात-त्रताप्रेमी अर्वाचीन महोदय वेशक बलवान हैं, वे निस्सन्देह उस सच्ची-गवर्नमैण्टफो भी उखाड़ सकते हैं । गवर्नमेण्टसे विरोध करना तो काम ठहरा ही, फिर वहाँ जो भला लगे वह यहॉ बुरा लगना ही चाहिये । ज्वरपीड़िन रोगीको मिश्री भी तो कटु खगने लग पड़ती है। ___ सारांरा, तिलक महोदयने सन्यासको जिस दृष्टिसे देखा है
और मनुके वचनोंका जो आशय ग्रहण किया है उसमें भारी भूल की है । त्यागरूप सन्यासका मार्ग निरोध करना शास्त्रकारोंका आशय कदापि नहीं हो सकता, ऐगा आशय तो तब हो सकता था जब कि उनकी दृष्टिमें ससार वस्तुत' सत्य होता, परन्तु वे तो पुकार-पुकारकर गला फाड-फाड़कर चिल्ला रहे है :(१) एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म । (२) नेह नानास्ति किश्चन ।' (३) 'मृत्योः स मृत्युमामोति य इह नानेव पश्यति ।।