________________
आत्मविलास
[१०२ द्वि. सण्ड
चाह रन्जुस बध्यो तो फिर सरोड़ क्या? किचा भ्रान्ति साथ तो विवाद फिर और क्या ? क्या तीनो ऋणोका बन्धन संन्यासका प्रवाह रोकनेके लिये था' महोदयजी । यह अनोखी नीति कहाँसे निकाल लाये ? कहीं त्यागके लिये भी धन्धन हुआ है ? हो, पफडके लिये तो बन्धन हो सकता है। संसारके सभी शासन पकडके लिये ही सारे कानून व विधान निर्माण करते हैं, जिनका यही श्राशय हुआ करता है कि यदि तुमको पकड ही इष्ट है तो अमुक-अमुकरीतिसे जिसमे तुम्हारा अनुचित स्वार्थका लगाव न हो और दूसरोके स्वार्थको हडप कर जानेवाला न हो, तुम पकड कर सकते हो । परन्तु निस्वार्थ त्याग के लिये संसारके किसी भी शासनने आजतक कोई भी विधान नही किया, बल्कि त्यागपरायण पुरुपके लिये तो सभी शासन
आदर व मानपत्र प्रदान करते हैं । 'सर' (Sir) राय-बहादुर' 'खान-वहादुर' आदि टाइटल देते हैं, समाचार-पत्रों में उनकी प्रशंसा की जाती है, दरवारमे उनको कुरसी मिलती है और उनके स्मारफमें पत्थर भी लगाये जाते है। इधर, संसारके सभी धर्म त्यागपरायण यज्ञ-दान-तपादि शुभ कमाँको विधिरूपसे वर्णन करते हैं और आर्थिक, शारीरिक व मानसिक त्यागका जिसमें जितना अधिक सम्बन्ध है, उनको उतना ही अधिक पुण्यरूप व मोक्षरूप निरूपण किया जाता है है त्यागमे तीनो लोक वेद यही गावें । फिर नहीं कहा जा सकता कि संन्यासरूप सच्चा त्याग जिसमे आर्थिक, शारीरिक और मानसिक तीनो त्याग पूर्णरूपसे विद्यमान हैं और जो सच्ची-सरकारको भेट दिये जा रहे हैं, किसी रूपसे धर्म शास्त्रोद्वारा निषिद्ध व निन्दित टहराया जाय । क्या यह सच्ची-सरकार उसको स्वीकार न करेगी और अपने दरबारमें उस त्यागी पुरुषको अवकाश न देगी ? और न किसी प्रकार