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[साधारण धर्म ___ यहाँ हमारे लिये यह विचार कर्तव्य है कि लोकसंग्रह गृहस्थमें रहकर ही सिद्ध होता है अथवा गृहस्या त्यागकर भी और अधिक लोकसग्रह गृहस्थमें रहकर होता है अथवा गृहस्थ त्यागकर । स्वयं अपना आचार-विचार और व्यवहार इतना पवित्र व उत्कृष्ट हो कि लोकोके लिये श्रादर्शरूप बन जाय, जिससे लोक स्वयं हमारे सत्यता व प्रेमपूर्ण श्राचार-विचारसे आकर्षित होकर हमारा अनुसरण करे और स्वयं अशुभ प्रवृत्तिसे छूटकर शुभ प्रवृत्तिमे जुड़ जाएँ, इसीका नाम लोकसंग्रह है। जिसने जितना अधिक अपना सुधार किया उतना ही अधिक वह लोकसंग्रह कर पाया, अपना सुधार करना ही लोकसंग्रहकी कुञ्जी है। जैसे सूर्य अपने प्रकाशमे प्रकाशमान होता है तब बिना ही किसी चेष्टाके संसारका अन्धकार अपने आप दूर हो जाता है, अखिल ब्रह्माण्डवर्ती जड़-चेतन पदार्थोमे स्वतः जागृति आ जाती है और स्वतः ही लोकसंह सिद्ध हो जाता है। स्वयं प्रकाशशून्य रहकर उसके द्वारा ससारमे किसी अर्थकी सिद्धि नहीं हो सकती । सूर्यके केवल अपने प्रकाश प्रकाशमान होनेका ही यह फल है कि उसके उदय होते ही पशु, पक्षी, मनुष्य, नदी सब सचेत हो जाते है और अपने अपने व्यवहारमें प्रवृत्त होजाते हैं । वर्षा होती है तो सूर्य करके, फल-फूल व अन्नादि पकते हैं तो सूर्य करके, यद्यपि उसको यह कोई कार्य अपने-आँप करना नहीं पड़ता, परन्तु यह सब कुछ सिद्ध होता है उसी सूर्यद्वारा, उसी की साक्षीमें। दीपकको अपने प्रकाशमें प्रकाशमान होनेकी ही देरी है कि पतंगे अपने-आप उसपर आपकी बलि देने के लिये हाजिर हो जाते हैं, उसको (दीपक को) पतंगोंके लिये निमन्त्रणपत्र भेजनेकी कोई जरूरत नहीं। संसारका केन्द्र हमारे अपने ही अन्दर, है, इसलिये अपने-आपको हिलाकर संसारको हिताया