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। साधारण धर्म कर्तव्य करनेका जुम्मेवार है । जैसे वृक्षके साथ बँधा हुआ फल जन पक जाता है तब अपने-श्राप वृक्षसे छूट जाता है। प्रकृति का ऐसाही अटल नियम है। इसी प्रकार कर्तव्यको अपनी ओर. से त्याग करना नहीं है, बल्कि सचा त्याग वही है कि परमानन्दरूप समुद्रमे मिलता हुआ कर्तव्य अपने आप छूट जाय, जिस प्रकार दया-दव मदिरापान करते-करते मदिराप्रेमीके हाथसे प्याला अपने-आप छूट जाता है। जिन लोगोने अपने ऊपर कर्तव्यसे मुक्त होनेकी विधि लागू की हुई है कि कर्तव्यका त्याग करना हमको कर्तव्य है वे वास्तवमें अशी बन्धनमें ही हैं। सारांश, किसी भी प्रकार जो लोग कर्तव्यके साथ बंधे हुए हैं वे अभी रोगी है। यह जीव शिवरूप होते हुए जब अपने वास्तविक खरूपको भूल जाता है और देहादिमें अभिमान करता है, तभी यह किसी न किसी रूपमें अपने ऊपर कर्तव्यका भूत सवार कर लेता है, यही रोग है । ऐसी अवस्थामें इहलोक' अथवा परलोक के सुखकी इच्छासे इसके हृदयमे रजोगुण विद्यमान हो जाता है। - कर्तव्यता केवल रजोगुणका ही परिणाम है और जहाँ रजोगुण व कर्तव्य है वहाँ कर्तृत्वरूपसे परिच्छिन्न-अहङ्कार भी है। जहाँ रजोगुणमिनित कर्तत्व-अहङ्कार व कर्तव्य दोनो हैं, वहाँ जो कुछ निर्णय होगा वह अवश्य एकदेशीय व दोषयुक्त ही होगा, व्यापक
और निर्दोष नहीं हो सकता है क्योकि ऐसे लोग अभी कर्तन्यके भारवाही है, भारसे मुक्त नहीं हुए, फिर उनकी दृष्टि क्योकर व्यापक हो सकती है। इसके विपरीत जो पुरुष उपर्युक्त रीतिसे मुक्त कर्तव्य हुए हैं, उनकी दृष्टि सदैव व्यापक होगी और जो कुछ उनके द्वारा निर्णय होगा वह निर्दोष, व्यापक और सर्वश्रेयस्कर होगा; इसमें सन्देह ही क्या है ? ...
तिलक-मतके अनुसार 'योग' व 'सांख्य भिन्न-भिन्न दो भागों