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आत्मचिलास द्वि० खण्ड
(३) आश्रम-धर्मका मृत हेतु फेवत थुवा लडकी बढ़ी चढ़ी उसंगोके पाडे न पाने के लिये प्रथया आत्मकल्याणक लिये ?
इस स्थलपर सहज ही प्रश्न होता है कि संसारका कतत्व क्या है। उत्तर दिना पिसी विवाटके स्पष्ट है कि सर्व भेदभावको दूरकर एकत्वभावमे समता-भरा प्रम स्थापन करना, यही एकमात्र संसारका कर्तृल है, यही स्थिर शान्तिका हेतु और यही प्राणिमात्रके जीवनका वास्तविक लक्ष्य है । प्रत्येक प्राणी जागने तक और मरनेतक साक्षात अथवा परम्परासे अपनी प्रत्येक चेष्टामें अपने अपने विचारानुसार ऐसे सुखकी खोज कर रहा है जो कभी नष्ट न हो। यह अविनाशी सुख केवल इस कर्तृत्वद्वारा ही सिद्ध हो सकता है और किसी प्रकार भी नहीं। इस लिये बिना किसी विवादके प्राणिमत्रके जीवनका लक्ष्य वस्तुत. यही वनता है। जब कि प्राणिमात्रका कर्तृत्व यही सिद्ध हुआ तब प्रत्येक समाज व प्रत्येक गतिका कर्तत्व क्या इससे कुल सिन्न हो सकता है ? कदापि नहीं । ससारमे प्रत्येक धर्म के प्रत्येक अङ्ग व उपासका वास्तविक नन्य साक्षात् अथवा परम्परा करके इसी स्थलपर पहुँचने के लिये ही हैं और जन्म-मरणपर्यन्त यावत् संसारके तापोसे मुक्ति इसी स्थलपर पहुंचकर ही सम्भव हो सकती है। सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते । अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥ (गी १८-२०) तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः । (ईशावास्य) ., अर्थ.-भित्र-भिन्न सर्व भूतोमे जिस ज्ञानद्वारा एक ही अभिन्न व अव्यय भाव जाना जाय, वही सात्विक ज्ञान है।