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श्रात्मविलास ] द्वि० खराड
मात्रसे क्या जड क्या चेतन सभी शीतल हो जाते हैं और उसकी किसी चेष्टा के बिना सभी उससे रस ले लेते हैं ।
वास्तविक दृष्टि तो यही है जो ऊपर कथन की गई । यदि नीचे उतरकर व्यवहारिक दृष्टिसे देखा जाय तो लोकसंग्रह निवृत्तिद्वारा जिस मात्रामे सिद्ध होता है, वह प्रवृत्तिद्वारा नहीं वन पडता । प्रवृत्तिद्वारा लोकसंग्रहमे प्रवृत्त पुरुषोंका जीवन केवल उन्हींके लिये उपदेशरूप हो सकता है, जो प्रवृत्तिमे लम्पट हैं, सो भी स्थिर शान्तिको देनेवाला नही, निवृत्ति वालों के लिये उनके जीवन से कोई भी उपदेश नहीं मिल सकता। परन्तु जो निवृत्तिद्वारा लोकसमूह में प्रवृत्त हुए हैं, उनका जीवन क्या प्रवृत्तिपरायण, क्या निवृत्तिपरायण सबके लिये उपदेशरूप है और स्थिर शान्ति को प्राप्त करानेवाला है। इस सिद्धान्तकी सत्यतामे ईश्वरीय प्रकृति स्वयं साक्षी है कि जैसा स्थायी लोकसंग्रह निवृत्तिपरायण भगवान् शुकदेव, भगवान् बुद्ध, भगवान् शङ्कर, श्रीकबीर, श्री नानकदेव और खामी रामदास आदि महापुरुपोद्वारा बन पड़ा है, वन रहा है और बनता रहेगा, वैसा प्रवृत्तिपरायण जनकादिद्वारा न हुआ है और न होगा। जिन साधनोद्वारा संसारमे स्थिर शान्ति स्थापित हो, वे ही यथार्थ लोकसमहरूप हो सकते हैं और प्रकृतिकी यह नीति है कि शान्तिका उद्बोध निवृत्तिद्वारा ही सम्भव है, प्रवृत्तिद्वारा नहीं । जहाँ प्रवृत्ति है वहीं रगड़-झगड़ धान उपस्थित होती है । अव यह बात दूसरी है कि किसीके चित्तमें प्रवृत्ति ही घर कर बैठी हो, वह प्रवृत्तिरूप खटपटसे ही संसारका सुधार मानने लगे और निवृत्तिसे हानि। यह केवल निवृत्तिका ही प्रभाव है कि त्रितापसे तपे हुए परीक्षतको श्रीशुकदेवते सप्तम दिनमें ही ज्ञानामृत पान कराकर विदेहमोक्षको प्राप्त करा दिया और जो भागवत्रूपी ज्ञान-गङ्गा उनकेद्वारा बहाई