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आत्मविलास
[EE हि खण्ड मनुष्यमात्रके प्रति एकता स्थापन करना सफल प्रवृत्ति हो सकती है। वह इस रूपसे कि हमारी जिन चेदानीद्वारा वे हनीफिक सुख तथा पारलौकिक शान्तिकं भागी बन सकं, अपनी इन चेष्टाओंसे उनका श्रेय साधन किया जा, न कि 'प्रय और उनके श्रेयसाधनमे अपने स्वार्थों की भरमा बलि दी जाय । यही वास्तवमें अपने आपको ऊँचा उठाना है और इस प्रकार श्राप ऊँचे उठकर उनको भी ऊँचा उठाया जा सकता है। परन्तु अपने
आपको बनाये रखकर यदि हम स्वभावसिद्ध शारीरिक भेटको मिटानेगे ही अपनी सर्व शक्तियों को लगा देंगे तो भी हग अभेद न कर सकेंगे, क्योंकि वह गेट तो प्राकृतिक है। उन्टा प्रवाह चल पडनेसे मन-बुद्धिद्वारा जो यथार्थ अभेट किया जा सकता है, उस यथार्थ पुरुषार्थसे भी हम अवश्य पञ्चित रह जायगे। न यह होगा न वह । जहाँ कही नितने अंशम एकता देखने आती है, उसके मूलमे कारणरूपसे उतना ही मनोकी पवित्रता तथा स्वार्थत्याग अवश्य पाया जायगा ।
खैर जी जो कुछ भी हो, हमारा तो प्राकृतिक प्रसंग यह था कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके प्रति एकता स्थापन करना ही एक्मान संसारका कर्तृत्त है और यह केवल नापेको खोनेसे ही सिद्ध हो सकता है। प्रापेका खोना सर्वत्यागरूप निवृत्ति ही है और 'संन्यास' उस निवृत्तिमे प्राणसञ्चार करनेवाला है। फिर नहीं कहा जा सकता कि संन्यासद्वारा ससारका कर्तृत्व नष्ट हो जायगा। यदि तिलक महोदयके कथनानुसार 'मनुके ध्यानमें यह बात भली-भाँति आ गई थी कि संन्यासकी घोर लोगोकी फिजूत प्रवृत्ति होनेसे ससारका कर्तृत्व नष्ट हो जायगा और समाज पढ्नु हो जायगा तव अपने इतने बड़े प्रन्थमें, जहाँ उन्होंने खाने-पीने, सोने ठने और मल-मूत्रस्योगादि छोटी-छोटी चेष्टाओंका भी