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[ साधारण धर्म विधान कर डाला, वहाँ शोक कि मनु इतनी महत्त्वशाली चर्चा के लिये, जिससे संसारका कर्तत्व ही नष्ट हो जाता है, दो पंक्तियाँ लिखनेका अवकाश न दे सके । उनको अवश्य कहीं बोलना चाहिये था कि 'हे जीवो संन्यास फिजूल प्रवृत्ति है और संसार तथा समाजको विध्वंस करनेवाली है। खैर! भला हुआ, प्रभातका भूला-भटका सन्ध्याको घर आ जाय तो उसे भूला न कहना चाहिये। तिलक महोदयको समयपर ही सूझ आ गई, अभी तो प्रलय में बहुत समय बाकी है। कलियुगके अभी पाँच हजार वर्प ही व्यतीत हुए हैं, चार लाख सत्ताईस हजार वर्ष तो कलियुगमें और भी शेप रहते हैं। अच्छाजी ! इसमें किसीका दोप भी क्या है ? दृष्टिमय तो संसार है ही, ईश्वरकी नीति भी तो ऐसी ही है कि 'जैसी मति वैसी गति ! एक अपनी ऑखोंमे पीतिमा रोग हो जानेसे सारा संसार ही पीला दिखलाई देने लग पड़ता है, फिर तिलक महोदयको संन्यास ससारनाशक कसे न जचता और इसमें उनको भलाई कैसे दीख पंडती ? अपनी भावनासे अमृत भी तो विप हो सकता है, त्रिगुणमय तो संसार है ही। इसीलिये भगवान्ने बुद्धिके सत्त्व, रज व तम गुणभेदसे तीन भाग कर डाले, यथा:
(१) प्रवृत्ति-निवृत्ति, कर्तव्य-अकर्तव्य, भय-अभय और बन्ध-मोक्षको जो ठीक-ठीक जाने वह बुद्धिसात्विक कही जाती है।
(२) जो उपयुक्त वातोंको यथावत् ज्यूँका त्यूँ न जान सके, घह, राजसिक बुद्धि है।
(३) और जो इन सबको विपरीत करके जाने वह बुद्धि तामसिक कही गई है। (गी. अ १८ श्लो ३०, ३१, ३२)
जो महाशय रजोगुणपरायण हैं, संसारकी सत्यता जिनके हृदयमें दृढ़रूपसे उस रही है और वास्तव तत्त्वसे अनभिज्ञ रहकर