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[ साधारण धर्म गई, उसके प्रवाहमे पड़े हुए अनन्त मुमुच, ब्रह्मसमुद्रमें समा गये, समा रहे हैं और समाते रहेगे। भाई! तेलने तो तिलोसे ही श्राना है, केवल प्रवृत्तिम ही शान्ति टूटना तो वालुसे तेल निकालना है । जहाँ कहीं प्रवृत्तिमे भी कुछ शान्ति देखनेमें आती है तो निवृत्तिक सम्बन्ध करके, फिर कैसे कहा जा सकता है कि निवृत्तिम लोकसंग्रह सिद्ध नहीं होता। यदि चमगादड़ सूर्यको न देखे तो इसमें सूर्यका क्या दोप
अब हम तिलक-मतके आठवे अपर आते हैं। इस अङ्कमें तिलक मतकै अष्टमी तिलक महोदयका यह सिद्धान्त है कि 'योग अंक्का निराकरण । (कर्म-योग) ही मुख्य हैं और संन्यास एक निष्फल चेष्टा । मनुके ध्यानमे भी यह बात भलो-भाँति आ गई थी कि संन्यासकी ओर लोगोकी फिजूल प्रवृत्ति होनसे संसारका कर्तृत्व नष्ट हो जायगा और समाज पढ्नु हो जायगा । इसीलिये मनुने तीनों ऋण (देव, ऋपि च पितर) की मर्यादा वाँध दी थी कि इन ऋणोसे मुक्त होकर पिर सन्यास ले। इससे यह सिद्ध होता है कि पाश्रम-धर्मका मूल हेतु यह था कि यथाशास्त्र गृहस्थ चलानेयोग्य लडकोंके सियाने हो जानेपर अपनी बुढ़ापेकी निरर्थक अाशाओंसे लड़कोकी उमङ्गोके आड़े न पा निरा मोर्चपरायण हो मनुष्य स्वयं आनन्दपूर्वक संसारसे निवृत्त हो जावे ।
यहाँ हमें संक्षेपसे विचार करना है कि:
(१) क्या मनु आदिकोकी दृष्टिमे संन्यास फिजूल प्रवृत्ति है, इससे संसारका कर्तृत्व नष्ट हो जाता है और समाज पढ्नु हो जाता है ?
(२) तीनो ऋणोंका बन्धन संन्यासके प्रवाहको रोकनेके "लिये है, वा सन्यासका मार्ग खोलनेके लिये ?