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[ साधारण धर्म 'जिसने एकत्वको सबमे देखा, उसके लिये कहॉ शोक और कहाँ मोह ?, __ उद्भिज गेनिसे लेकर मनुष्यपर्यन्त प्रकृतिकी क्रम-क्रमसे प्रत्येक
चेष्टाओका विकास इसी अभेद-स्थितिपर पहुंचने के लिये है अन्य किसी निमित्तसे नहीं और यहीं पहुँचकर प्रकृतिको विश्राम है। इसके विना जीन प्रकृतिके बन्धनसे कदापि छुटकारा नहीं पा सकता, चाहे असंख्य योनियॉ क्यो न व्यतीत हो जाएँ और यही पहुंचकर वैतालकी भेटोकी पूर्णाहुति होती है। परन्तु स्मरण रहे कि जिस प्रकार अनेक प्रकारको खाद्य सामग्रीक मेजसे भोजन बनाया जाता है, उसी प्रकार यह एकता किमी रूपमे बनाई जानेवाली वस्तु नही है, किन्तु रखत.सिद्ध है। बल्कि जब उस स्वतःसिद्ध एकतामे हमारा प्रवेश होगा तब हम अनुभव करेंगे कि वहाँ भेदभाव कदापि हुआ ही नहीं था। बल्कि वह वस्तु ज्यूकी त्यँ सदा ही एकरस स्थित है, इस अनेकताने उसको कदापि स्पर्श किया ही न था और यह सव भेदभाव नीचे ही थे। यदि हमको उस एकतामें प्रवेश करना इष्ट है तो हमको चाहिंय कि हम केवल अपने-आपेकी बलि दे छोडे और प्रापेको खो देवे । पापा खोकर ही हम ऊँचे उठ सकते हैं और उस समतामे प्रवेश कर सकते हैं। प्रापेको रखकर कदापि नहीं, क्योकि यह श्रापा ही उसमें प्रतिबन्धक है। लिम प्रकार जत प्रापेको अग्निमें जलाकर और भापके रुपमें सुन्म होकर ही उँचा उठ सकता है और सम्पूर्ण वातावरणके साथ एकता प्राप्त कर सकता है, न कि वर्फके रूपमे अपनेको जड़रूपमे नीचे गिराकर, उसी प्रकार आपेको रखते हुए किसी प्रकार भी एकता सम्भव नहीं है। इसके विपरीत
आपको बनाये रखकर और देहाभिमानको सुदृढ करके जो एकता. वनानेकी चेष्टा की जा रही है, वह कोरा प्रमान ही है और ऊँटके गलमें बकरी जोड़नेके समान है।
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