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आत्मविलास]
द्वि० सण्ड 'लोकसग्रह मुझको करना है, गहन्थम ही रहना है, नगार विगळा हुआ है और इसका सुधार करना है। ज्यामिरपन अनेक कर्तव्यरूप भ्रम उसमे भर पं । जो वर्तव्यावहीं म
और भ्रम सदैव अन्धकार (नान) में ही झोता प्रकाश (मान) मेनहीं। जबकि अन्धकार विद्यमानता बारम अन्धकारकी निवृत्ति नहीं होती, इसके लिये तो प्राशनारियानी तो वही होगा जिसके वित्त घर र ननका निकल गया।
'गह उद्यान एक सम जान्यो. भारगिटायां इजा। जिसकी ठिमेस्य संमार. या जामा तन गया न्यावर क्या जगम अपने ही परमानन्दकी नगगन गई हो. भंवरष्टि दग्ध होगई हो । पिर उसके लिये कहां गया ? ना सुधार ? ज्ञान कोई वाचनिक नहीं है, बल्कि शरीरक रोम-रोममें परमानन्द की लहरे तरङ्गायमान करना है। इस प्रकार सूर्यके समान अब ऐसा महापुरुष अपने आत्मप्रकाशम प्रकाशमान होता है, उसके नेत्र, वाणी और प्रत्येक चेपासे जयानन्द्रवीरसियाँ फूट-फूटकर निकलती है, तब स्वत अज्ञानान्धकार निवत्त होता जाता है भावुक-भक्त उसके परमानन्द के स्रोतमे मनन करते हुए तन-मन से मालामाल होजाते हैं और रवत नोक्मग्रह मिट्ट हो जाता है। परन्तु हमारे तितक महोदय बानिय तो प्रवृत्ति-निवृत्तिका भेद और ससारगटि भरपूर हो रही है, यह कि नको तो अपने स्वरूपमे संसार जिंगडा हुलासान हो रहा हे गौर उसको सुधारनेका भार उनपर तदा हया है। रामा । मुभागे अपनी दृष्टियोको, जब आपकी अपनी दृष्टि सुधर जारगी तब बाहर ता ससार तीनकालमेही नहीं हुा । केवल आपकी टिम ही ससार भरा पडा था, उखाडो उसको यहाँसे, फिर सेनिमाफे पडदेके समान वाहर तो कुछ बना ही नहीं, केवल अपने नेत्रों में पीलिया होनेसे ही सन संसार पीला दीख पड़ता है।