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[ साधारण धर्म करना है और यही सुदृढ़ लोकसंग्रह है, तब तिलक महोदयका यह मत कि 'ज्ञानियोंके गृहस्थमें रहनेसे ही अधिक लोकसंग्रह सिद्ध होता है एक शून्य कल्पना और कोरा हठ है। हमारा तो कथन इतना ही है कि पहले ही संसारका सुधार करनेके लिये तथा लोकसंग्रहके लिये न भटपटाओ, इससे पहले अपना तो सुधार करलो, ठीक-ठीक ज्यूँका त्यूँ अपना और ससारका स्वरूप तो जान लो और २+२४ की भाँति यह यथार्थ निर्णय तो कर लो कि ब्रह्मास लेकर चींटीपर्यन्त भूत-प्राणिमात्रका जीवन किस अनोखी वस्तुके तिये कटु हो रहा है। अपनी प्रत्येक चेष्टा मे वे किस सलौनी वस्तुको घटार रहे है । वह कहाँ है ? उसका वास्तव स्वरूप क्या है और यह ठीक-ठीक कैसे प्राप्त की जा सकती है ? जवतक इन पहेलियोंको ठीक-ठीक न सुलझा लोगे
और आप अपनी प्यास भली-भाँति शान्त न कर लोगे, तबतक श्राप लोकसंग्रहके पात्र ही नहीं हो सकते । इससे पहले ही लोकसंग्रहके लिये यदि व्याकुल हो रहे हैं तो स्मरण रहे कि श्राप संसारके सुधारक न होकर संसारके नाशक भी हो सकते हैं। 'नीम हकीम खतरेजॉ, नीममुल्ला खतरे इमाँ'- अर्थात् श्रद्ध वैद्य से जीतनका भय और अई-उपदेशकसे धर्मका भय होना जरूरी है। तब यही गति संसारकी होनी निश्चित है। चौकेजीसे छट्वेनी होनेके स्थानपर दुवेजी ही बनना पड़ेगा। इसके विपरीत यदि
आप अपना फैसला कर बैठे है तो इस चिल्लाहटका कोई अर्थ नहीं बनताकि 'नानियोंके गृहाथमे रहनेसे ही लोकसंग्रह बनता है, अन्यथा नहीं । प्रथम तो बानीका यह विचार. कि 'मुझे लोकसंग्रह कर्तव्य हैं और इसके लिये मुझे गृहस्थमे ही रहना आवश्यक है, उसके ज्ञानकी सर्व प्रकार त्रुटिको ही सिद्ध कर रहा है, क्योंकि अभी उसमें आत्मप्रकाराकी मस्ती ही नहीं आई।
यहादुओजी है तो इस ही लोकर