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आत्मविलास] का अर्थ उन्होंने कर्महीनता व निश्चेष्टता किया है, जो सर्वथा अनुभवविरुद्ध है । मुक्त-कर्तव्यका अर्थ चेष्टाशून्य होना नहीं है, बल्कि विधिमुक्त होना है। चेष्टा अपने स्वरूपसे बन्धनका हेतु नहीं है, किन्तु चेष्टा के साथ जो विवि है कि 'अमुक कर्म करना हमारे अपर 'विधि' या 'फरज' है और उसको करनेके लिये हम पाबन्द हुये हैं। केवल वह विधि ही बन्धन व कर्तृत्व-अहङ्कारका हेतु है और वही दुःख है। अपनी स्वाभाविक चेष्टा, जिसके साथ विधिरूप कर्तव्य नहीं, दुःखरूप भी नहीं, बल्कि वह तो श्रानन्दरूप है। जैसे बच्चे कियी कर्तव्यके विना गुडे-गुडियोके खेलमें गृहस्थ के सभी प्रपञ्च रचते हैं, परन्तु वह उनके लिये केवल विनोद रूप ही होता है, किसी प्रकार दुःखरूप नहीं होता। इसी प्रकार मुक्त-कर्तव्यका आशय तो यह है कि देहाभिमानसे ऊँचा उठकर
और स्वरूपस्थिति प्राप्त करके विधिके बन्धनसे छुटकारा पा लिया नाय, जहाँ न तो 'कुछ न करना' विधि रहे और न 'कुछ करना' ही विधि रहे । वेदान्तका यह श्राशय नहीं कि किसी प्रकार साधन अवस्थामे ही लोक व वेदका बन्धन तोड़ा जाय। कदापि नहीं बल्कि चेदान्त तो साधन अवस्थामें अधिकारीके अधिकारानुसार कर्तव्यका बन्धन लगाता है कि वह अपने धर्मा नुसार कर्तव्यमें बंधा हुआ अपनी उन्नतिके मार्गमें निर्विवतया सीव्र वेगसे चला जाय, जिस प्रकार नदीका प्रवाह अपने तटोकी मर्यादामें बंधा हुआ तीन वेगसे समुद्रकी ओर दौड़ता जाता है।' परन्तु अन्ततः सटोकी मर्यादामें चलता हुआ समुद्रमे मिलकर
सको मर्यादामुक्त व तटमुक्त स्वाभाविक ही होना पड़ेगा। ठीक, इसी प्रकार अधिकारानुसार कर्तव्य-बन्धन भी जीवको अपनी मर्यादामे चलाता हुआ शिवरूप समुद्रमें मिलाकर मुक्त