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अात्मविलास]
[२ तथापि श्रवण-मनन-निदिध्यासनादि मानसिक व बौद्धिक चेष्टाओं का विकास अधिक है। क्या तिलक महोदय कह सकते हैं कि कर्मकी जो व्याख्या भगवान्ने अ.८ श्लो. ३ मे की है, उसके अन्तर यह बौद्धिक चेष्टाएँ नहीं पाती । क्याचे भावशून्य चेष्टाएँ हैं और अधिकारीके लिये वे नियत-कर्म नहीं । इसके अलावा. इस श्लोकसे न तो कर्मसे मोक्ष सिद्ध होता है और न ज्ञानीपर, कर्तव्य ही सिद्ध होता है। (१६) तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्धय च । मय्यर्पितमनोवुद्धिमिवैष्यस्यसंशयम् ॥
(-४) अर्थ-इसलिये सर्व कालमें तू मेरा स्मरण कर और युद्ध कर, मेरेमे अर्पण किये मन-बुद्धिसे तू निस्सन्देह मेरेको ही प्राप्त.
होगा।
___इस श्लोकमें भक्तियुक्त कर्मकी प्रशसा की गई है, सो यथार्थ ही है। वेदान्त इसका विरोध नहीं करता, बल्कि ऐसे कमको
आदर देता है और ज्ञानमे इसकी परम उपयोगिता मानता है। किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि कर्म ही मोक्षका साक्षात् साधन है, अथवा ज्ञानीपर कोई कर्तव्य है।
इस प्रकार तिलक महोदयकी उक्तिके अनुसार इन श्लोकोका अर्थ ग्रहणकर हमने विचार किया है, वस्तुतः तो इन श्लोकोंका अर्थ गम्भीर है। हमारे विचारसे गीता तिलक-मतकी, जैसा उन्होने प्रकट किया है, पुष्टि नहीं करती। गीता एक परम उदार, व्यापक और प्राकृतिक शिक्षा देनेवाला अद्भुत प्रन्थ है जो किसी मत-मतान्तरकी सीमामे नही बॉधा जा सकता। यह सब मत-मतान्तरोंको प्रकाश देनेवाला है, और संबसे निराला है