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श्रामविलास ]
नही रहता (३. १७) । उमका इस संस रमें न तो कुछ किये जानेसे प्रयोजन है और न कुछ न किये जामेसे ही कोई प्रयोजन है (३. १८)।
इससे स्पष्ट है कि भगवानको आत्मम (ज्ञामी) पर कोई . कर्तव्य इष्ट नहीं है । अध्याय ३ श्लोक १७ की टीका तिलक महो। दयने 'तस्य कार्य न विद्यते' के अर्थमें स्वयं अपना कुछ कार्य नहीं रहता, परन्तु संसारके निमित्त कर्तव्य रहता है। ऐसा अधिक अर्थ किया है । यह उनका साम्प्रदायिक अाग्रह है । यदि इसको सत्य भी मान ले तो अगले श्लोक ३. १८ में इसका हाथों-हाथ स्पष्ट खण्डन मिल जाता है, जिसमें कहा है कि 'उसका इस संसार में ही कुछ करने या न करने से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता' 'न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यापाश्रयः।' हाँ, उस उपर्युक्त अवस्थाकी प्राप्तिके लिये इस श्लोक (३ १६) में अनासक्त-बुद्धिसे, करनेयोग्य कर्मोका आचरण सहायक बताया गया है । इससे वेदान्तका कोई विरोध नहीं, वेदान्त कर्मों को निष्फल नहीं कहता, घल्कि उसका तो कथन है कि जैसे लोहसे लोहा काटा जाता है, वैसे ही कर्मोंसे मे काटे जाते हैं। इसी प्रकार कर्तव्य-कर्म मी कर्तव्यों से छुटकारा दिलानेके लिये हैं, नकि कर्तव्योंमें अकड़े रखने के लिये ही। इस श्लोकसे कर्मझी कर्तव्यता जिनासुपर रक्खी गई है कि इस प्रकार आचरणद्वारा वह उस ज्ञानापस्था (मुक्तकर्तव्यता) को प्राप्त हो सकता है, जिसका वर्णन पिछले श्लोक ३ १७ व ३ १८ में किया गया है । परन्तु तिलक-मता तो कथन है कि कर्तव्योंसे क्दापि छुटकारा है ही नहीं। ऐसा अर्थ इन तीनों श्लोकों की संगति लगावेसे सिद्ध नहीं होना । 'मुक्त-कर्तव्य' का अर्थ 'निश्चेष्ट होना नहीं है, जैसा तिलक महोदयने इन श्लोको को टीकामें वेदान्त मतको आशय जितलाया है, बल्कि 'विधिसे