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[साधारण धर्म मुक्त होना है। कर्मकी विधि ही बन्धन है, स्वाभाविक कर्म वन्धक नहीं। यही आशय उन योगवाशिष्ठ तथा गणेश-गीताके श्लोकोंका है, जो तिलक महोदयने इन श्लोकोंकी दीकामें अपनी
ओरसे प्रमाणमें दिये हैं और श्लोक नं० १६ (अ. ३. २५) की “व्याख्या हमारे द्वारा भी पीछे पृ. ७७ से ७६ पर उसका यही
ओशय स्पष्ट किया गया है। (१८) अनाश्रितः कर्मफलं कार्य कर्म करोति यः। स संन्यासी च योगी च न निरगिर्न चाक्रियः॥
(अ० ६-१) अर्थः कर्मफलका प्राश्रय न करके जो करने योग्य कर्म करता है वही संन्यासी और वही योगी है, न कि अग्निको त्यागनेवाला अथवा क्रियाको त्यागनेवाला।
इस श्लोकमें फलाशारहित कर्मकी प्रशंसा की गई है और ऐसे कर्मको संन्यासकी उपमा दी गई है। इससे भगवान्का तात्पर्य - निष्काम कर्मकी महिमामें है न कि संन्यासकी निन्दामे । जिस संन्यासकी उपमा देकर निष्काम-कर्मकी महिमा गाई गई है, वह संन्यास इससे निन्दित नहीं ठहरता। यदि उपमान (संन्यास) निन्दित है तो उपमेय (निष्काम-कर्म) स्वाभाविक निन्दित होगा। । इससे स्पष्ट है कि संन्यासकी उपमा देकर सन्यास निन्दित नही बनाया गया, बल्कि इसके सम्बन्धसे निष्काम-कर्मकी स्तुति गाई गई है। ऐसी स्थितिमें संन्यास तो स्वाभाविक स्तुतियोग्य है ही, जिसके द्वारा निष्काम-कर्म स्तुतिपात्र बना। परन्तु इसके विपरीत तिलक महोदयने इस श्लोकसे निष्काम कर्म ही धेय और सन्यास गहित ठहराया है, जो उनकी अनुदारताका ही परिचय देता है। दूसरे, यद्यपि संन्यासमार्गमें शारीरिक चेष्ठाको 'घटाया गया है,