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मात्मविलास]
[७६ सर्व देश-काल-वस्तुसे अच्छेच है । जैसे एक ही व्यापक आकाश नाना-घटोंमें पाया हुआ भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है, परन्तु वास्तष में घटोंके भेदसे आकाशका भेद और घटोंके नाशसे आकाशका नाश नहीं होता, इसी प्रकार शीरोंके नाशसे आत्माका नाश नहीं हो सकता।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । । उमौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न इन्यते ॥ ।
अर्थात् जो इस आत्माको मारनेवाला जानता है अथवा जो "इस आत्माको मरनेवाला मानता है, वे दोनों ही यथार्थ नहीं जानते, क्योंकि वास्तवमें यह आत्मा न मारता है न भरता है। ___इस प्रकार ज्ञानरूपी तलवारसे पर्तृत्वाभिमानको काटकर अपने आत्मस्वरूपी योगमें स्थित हुआ, हे भारत! तू खड़ा हो । कर्तृत्वाभिमान ही धन्वन है और इसका समूल अभाव होना ही मुक्ति । किसी प्रकार कर्मके द्वारा कर्तृत्लामिमानको नाश नहीं किया जा सकता, बल्कि कर्मद्वारा तो इसकी वृद्धिका ही सम्भव है । एकमात्र उपयुक्त ज्ञान ही इस अमिमानसे छुटकारा दिला सकता है और यह ज्ञान केवल उसी हृदयमें टिक सकता है जो 'वैराग्यरूपी माडूसे साफ हो चुका हो। इस श्लोकमें भगवान ने धर्मद्वारा मोक्ष निरूपण नहीं किया, बल्कि कर्तृत्व-संशयको छेदन करनेके लिये 'ज्ञानासिना' ज्ञानरूप खड्ग ही सावन बतलाया है । 'योग' शब्दका अर्थ यहाँ निष्काम कर्म-योग नहीं है, बल्कि यहाँ आत्मस्वरूपस्थिति ही 'योग' शब्दका मुख्य अर्थ है । क्योंकि ज्ञानरूपी तलवार और निष्काम कर्मयोग दोनों साधन तो इकट्ठे रह नहीं सकते, किन्तु ज्ञानरूप तलवार तो साधन है और 'योग' (आलस्वरूपस्थिति) साध्य, अर्थात् ज्ञानद्वारा ही आत्मस्वरूप