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आत्मविलास ]. प्रकार दूसरे श्लोकमें भी इसकी पुष्टि की गई है कि 'जो सब
आशाओंसे छूटा हुआ है और शरीर-मनपर जिसका काबू है, वह शरीरसम्बन्धी स करता हुआ मी पापसे लेपायमान नहीं होता। भगवान्के उपर्युक्त वचन वेदान्तसे विरोधी नहीं है । वेदाविका यह आशय है कि निष्काम कर्मसे जिसका अन्तःकरण যুদ্ধ ই স্পী মানা কথন চৰীকা মিনাল ভিলক্ষ্য दग्ध हुआ है, उसके लिये कर्म वन्धनकारक नहीं और वह करता हुआ भी कुछ नहीं करता । उसके सब कर्म भुने बोनके समान है नो फलके हेतु नहीं रहते और वह सर्व कर्तव्योंसे मुक्त है, फरे या न करे। हॉ, अन्तःकरण शुद्ध होनेके पश्चात् और ज्ञानसे पहले प्रवृत्तिसे छूटकर ज्ञान के साधनोंमें प्रवृत्त होना वेदान्तहष्टिसे आवश्यक है, परन्तु ज्ञान प्राप्त कर चुकनेपर उसके लिये कोई विधि नहीं । जय वह रोगमुक्त हो गया तब उसके लिये ओषधि व पथ्य जरूरी नहीं।
तिलक मत कहता है कि ज्ञानीके लिये भी कर्तव्य अवश्य है सो इन श्लोकोंसे शानीपर कोई कर्तव्य सिद्ध नहीं होता। मगवान्का कथन है कि ऐसा पुरुष कर्म भी करे तो भी वह कुछ नहीं करता और किसी पापसे लेपाथमान नहीं होता। परन्तु इससे उसपर किसी कर्मकी विधि सिद्ध नहीं होती, बल्कि यह उसकी. महिमा है कि वह करता हुआ भी कुछ नहीं करता और नहीं पॅधता। न तिलक-मतके अनुसार इन श्लोकोंसे धानोत्तर दो, भिन्न-भिन्न मार्ग स्वतन्त्र और तुल्यबल ही सिद्ध होते हैं। (१५) तस्मादज्ञानसम्भूतं हत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
चित्त्यैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥ (१-४२) अर्थ-इसलिये अनानसे उत्पन्न हुये हृदयस्य अपने इस संशयको (कि मैं कर्ता-मोक्ता हूँ) बानरूपी खड्गसे छेदन करके