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साधारण धर्म]
और दबानेसे न दय सकी, तब यौवनोंकी तो वार्ता ही क्या है ? धर्मशास्त्र और सर्वज्ञ ऋषि-मुनि तो इस बातकी जुम्मेवारी ले नही सकते थे और उन्होंने तो अपवाद ( exceptions) लिख भारे 'यंदहरेव विरजेत तदहरेव प्रव्रजेत । भगवान् तिलक भले ही इस बात की जुम्मेवारी ले। और चिल्लाते रहे कि निवृत्ति धर्मवरुद्ध है। मायाके राज्यमें यह नियम तो नहीं किया जा सकता के सभी भगवान तिलक जैसे कर्मवीर व कर्मयोगी होगे । परन्तु अपने पिछले जन्मों में जो भगवान् तिलककी भाँति प्रवृत्तिपरायण हो अपने रजोगुणके वेगको खलास कर बैठे हैं और इस जन्ममें योगभ्रष्ट होकर उत्पन्न हुए हैं; अथवा अपने वर्तमान पुरुषार्थद्वारा जो सत्वगुण उपार्जनमें तत्पर हैं और प्रवृत्तिमें धकेलनेवाला (जोगुण जिनमें है ही नहीं, ऐसे पुरुषों के लिये भी तिलक महोदय को कोई मार्ग खोलना चाहिये था कि वह कहाँ जाएँ और क्या. करें ? प्रवृत्तिकी सामग्री उनमें रही नहीं और निवृत्ति के लिये उनका मार्ग बन्द, फिर उनकी कौन गति ? यद्यपि इसमें सन्देहं नहीं कि इस योनिमें गीतारहस्य लिखते समय भगवान विलक के हत्यमें पूर्ण रूपसे और निष्कामभावसे रजोगुणका समुद्र उमंड रहा था, इसलिये उस पार उन्होंने आँख उठाकर देखा ही नहीं, तथापि प्रकृतिके राज्यमें रजोगुण निकलनेपर सत्त्वगुणका प्रसव स्वाभाविक है। यदि इस समय हम भगवान् तिलक की अात्माका आह्वान कर सकते तो इस विषयपर उनसे चित्र साक्षी प्राप्त की जा सकती थी।
' (इ) अब हमें यह विचार करना है कि अधिकारी के लिये भिक्षावृत्ति, जिसको तिलक महोदयने निर्लज्जतामूलक कम वर्णन भकिया है, यह उनका विचार कहातक उचित है ? गृहस्थके लिये नित्य ही पश्च-महायज्ञोंकी विधि शाखकारोंने विधान की हैं और