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श्रात्म विलास] समूल नग्ध हो जाता है। चिरकालीन जप-तप-त्रतादिद्वारा मन पर वैसी विजय प्राप्त नहीं की जा सकती, जैसी भिक्षावृत्तिद्वारा स्वाभाविक ही प्राप्त हो जाती है और इससे मनोनाश वासनाक्षयकी सिद्धि हो सकती है। योग-वाशिष्ठ निर्वाण प्रकरण सर्ग ६३, ६४ में राजा भागीरथका पाख्यान है । जब उसको तत्त्वजिज्ञासा उत्पन्न हुई तब उसके गुरु त्रितलऋषि ने पहिला उपदेश यही किया कि "हे राजन! तू राज-पाटका परित्याग करके अपने शत्रुओंके घर से भिक्षा माँग, जिससे तेरा मनोनाश व वासनाक्षय सिद्ध हो । आधुनिक कालके भतृ हरि तथा गोपीचन्द्रादि नरेश इसके ज्वलन्त दृष्टान्त हैं । इससे हमारा यह अभिप्राय नहीं कि सर्व साधारणके लिये ऐसा कर्तव्य है, परन्तु धर्मकी उपयुक्त सोपानों को उत्तीर्ण करके जिनके हृदयोंमें 'हकीको इश्क' वरङ्गायमान हुश्रा है, जो सत्यप्रेमके मतवाले हुए हैं, किसी हटीले रंगीलेके रंगमें जिनका मन रंगा गया है और उस रंगने आगा-पीछा देखनेकी
आँखें ही बन्द कर दी है, उनके लिये तिलक महोदय सरीखे देशभक्त भले ही घृणा-दृष्टि उपजाते रहें और देश-भक्तिके गीत गाया. करें, परन्तु वहाँ तो सुननेके कान ही किसी बदमस्तने रहने न दिये, फिर सुने कौन ? गालियाँ देनेवाले गालियोंकी बौछाड़ याँधते ही रह जायेंगे, परन्तु जिनके सिरपर सफर सवार हुआ है उन्हें पीछे मुड़कर कब देखना है ?
सात गाँठ कोपीन की, साधु न माने शङ्क।
राम अमल माता रहे, गिने इन्द्र को रङ्क॥ स्वामी रामदासजीने अपने ग्रन्थ दासबोधमें जिसको तिलक महोदयने स्थान-स्थानपर प्रमाणभूत माना है, दशक १४ समास २ मे भिक्षावृत्तिकी महान प्रशंसाकी है। उनका कथन है: