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साधारण धर्म] इस विषयमें थोड़ा और विचार किया जाय तो स्पष्ट होगा, कि प्रवृत्ति जिनके लिये अधिकारकी वस्तु और व्यवहारिक-कर्म है, निवृनि उनके लिये त्याज्य है और यह व्यवहारिक-कर्म नहीं है । तथा निवृति जिनके अधिकारमें पाती हैं और व्यवहारिक कर्म है, उनके लिये प्रवृत्ति त्याज्य है और वह व्यवहारिक-कर्म . नहीं है। साथ ही इस प्रकार जिनके लिये प्रवृत्ति त्याज्य है उनके लिये प्रवृत्ति प्रत्यवायरूप होगी और निवृत्ति जिनके लिये त्याज्य है उनके लिये निवृत्तिका प्रत्यवायरूप होना जरूरी हैं, इसमें सन्देह ही क्या है ? दृष्टान्त-स्थलपर समझ सकते हैं कि गृहस्थके लिये जो धर्म है वह सन्यासीके लिये अधर्म, और संन्यासीके लिये जो धर्म है वह गृहस्थ के लिये अधर्म होगा। धनसंग्रह व पुत्रोत्पत्ति गृहस्थके लिये धर्म है तो संन्यासीके लिये अधर्म, और मिक्षावृत्ति संन्यासीके लिये धर्म है तो गृहस्थ के लिये अधर्मरूप होगी। हाँ सांसारिक कामनाका परित्यागकर केवल ईश्वरप्राप्ति लक्ष्य करके अपने-अपने धोका आचरण तो दोनोके ही लिये अनासक्त
यवहारिक कर्म हो सकते हैं । परन्तु तिलक महोदयकी अपनी एकदेशीय दृष्टिमें तो केवल प्रवृत्ति ही अनासक्त व्यवहारिक कर्म है, निवृत्ति तो न कर्म ही मानी जा सकती है और न व्यवहारकी गणना में ही आती है, फिर वह अनासक्त व्यवहारिक कर्म तो बने ही कैसे ? वास्तवमें विचारसे देखा जाय तो आसक्तिव अनासक्ति ग्रहण व त्यागरूप ही है, अर्थात् आसक्ति ग्रहणरूप व प्रवृत्तिरूप है तथा अनासक्ति त्याग व निवृत्तिरूप । एकमात्र फलत्यागके सम्बन्धसे ही जब 'आसक्ति' अर्थात् प्रवृत्ति 'अनासक्ति के
रूपमें मानपात्र हुई, फिर सर्वत्यागरूप निवृत्तिको अनासक्त व्यव'हारिक कम भी न मानना तो विचरोंकी अत्यन्त वसंकीर्णता है।