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साधारण धर्मे] ३६, ३७, ३८ में ज्ञान-यज्ञकी महिमा इस प्रकार गाई गई है:
"ज्ञानके समान कोई श्रेष्ठ वस्तु संसारमें नहीं है।" "ज्ञान-अग्नि सर्व कर्मोको इसी प्रकार भस्म कर देती है, जिस
प्रकार भौतिक अग्नि ईंधनको जलाकर भस्म कर देती है।" । “तू कितना भी पापीसे पापी हो, फिर भी ज्ञान-नौकाद्वारा तू
सर्व पापोको भली प्रकार तर जायगा ॥" और श्लोक ३८ में तो स्पष्ट ही कह दिया है:.. तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।।।
अर्थात् उस ज्ञानको (जिसकी महिमा ऊपर कही गई है) तू स्वयं ही योगके सिद्ध होनेपर काल पफिर आप ही अपनेमें प्राप्त कर लेगा। .
इससे तो योगसिद्धि ही ज्ञानको पूर्वाङ्ग सिद्ध होता है । यदि 'कर्मयोग', ही विशेष होता तो 'संसारमें ज्ञानके समान कोई पवित्र वस्तु नहीं है। इन वचनोंका कोई भावार्थ नहीं बन सकता था।'ज्ञान की सर्वश्रेष्ठता ही 'कर्म' कीगौणताको सिद्ध करती है।
तिलक महोदयने स्थान-स्थानपर कहा है कि ज्ञानोत्तर ज्ञानीके लिये दो मार्ग हैं, परन्तु शोक ! ऐसा कोई प्रमाण गीतामें नहीं मिलता जिससे ज्ञानके पश्चात् दो मार्ग सिद्ध होते हों । बल्कि ज्ञानीके लिये यह वो कहा गया है 'तस्य कार्य न विद्यते' (अ.३. श्लो. १७, १८) अर्थात् ज्ञानी के लिये कोई कर्तव्य नहीं है। परन्तु तिलक महोदय तो मुक्तपर भी बन्धन लगाये ही जाते हैं। --- (३) ; संन्यासः कर्मयोगश्च निश्रेयस्करावुभौ । .
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥(अ.५,२.) अर्थ:-संन्यास और कर्मयोग दोनों ही मोक्षप्रद हैं, ईन दोनोंमें भी कर्मसंन्याससे कर्मयोगकी विशेपता है।