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[आत्मविलास
६६] इस श्लोकसे तिलक महोदयने यह प्रमाण किया है कि दोनों मार्ग तुल्यवल व स्वतन्त्र होते हुए भी भगवानको यह इष्ट है कि कर्मसंन्याससे कर्मयोगकी विशेषता है।
(१) दोनों मागोंकी स्वतन्त्रता, (२) तुल्यबलवत्ता और (३) वैकल्पिक रूपसे इनका आचरण, इन तीनों विषयोका खण्डन तो विस्तारसे हमारे समाधानके अङ्क प्रथममें इसी खण्डके पृ.४ से १४ पर तथा उपयुक्त श्लोक नं १ व २ की व्याख्यामें प्र. ६१ से ६५ पर किया जा चुका है इस लिये पुनरुक्ति निष्प्रयोजन है। अब यहाँ विचार यह करना है कि क्या कर्मसंन्यास' (सांख्य, ज्ञान, निवृत्तिपक्ष) से 'कर्मयोग' की विशेषता भगवानको इष्ट है ? यदि ऐसा माना जाय कि वास्तवमें भगवानको 'कर्मयोगकी' विशेषता इष्ट है, तो भगवान्के पूर्वापर वचनोंकी सङ्गति नहीं लगवी। किसी वक्ताके आशयका निर्णय करनेके लिये पूर्वापरकी सगति लगाना अत्यन्त जरूरी है, बिना ही सङ्गतिके अपना आशय किसी एक वचनसे सिद्ध करना तो ऐसा ही होगा, जैस किसीने कुरानसे भी 'नुमाज मत पढ़ो निकाल लिया था। पीछे चतुर्थ अध्याय श्लो. ३५,३६,३७ में तो भगवान ज्ञानकी सर्वश्रेष्ठता और श्लो. ३८ में योगको ज्ञानका पूर्वाङ्गवर्णन कर आये हैं यथा:
तत्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति' अर्थात् योग सिद्ध होनेपर साधक उस ज्ञानको समय पाकर
® कुरान में लिखा था कि 'नुमाज मत पढ़ो, जबकि तुम नापाक हो । एक व्यक्ति नुमाजसे घबराता था, अपने साथियोंसे पीछा छुड़ाने के लिये 'जबकि तुम नापाक हो' इस वाक्यको दवा कर अपने साथियोंको कुरान दिखलाकर कहने लगा "देख लो ! कुरानमें भी लिखा हुआ है कि नुमाज मत पढ़ो।
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