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[आत्मविलास प्रकार जिसके हृदयमें रजोगुण भरपूर है उस अधिकारीकी दृष्टिसे यहाँ 'कर्मयोग' को विशेषता कही गई है। रजोगुण निकलनेपर वह श्राप 'सांख्य द्वारा ज्ञानको प्राप्त कर जायगा। इसी दृष्टिसे 'कर्मयोगो विशिष्यते' कहा गया है। .. (४-५-६) कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसास्मरन् ।
इन्द्रियान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ नियतं कुरु कर्म वं कर्म ज्यायो हकर्मणः । शरीरयात्रापि च ते नासिद्धय देकर्मणः।। (अश्लो ६.७.८)
अर्थः कर्म इन्द्रियोंको रोककर जो मूढपुरुषमनसे इन्द्रियोंके विपयोंका स्मरण करता रहता है, वह मिथ्याचारी कहा जाता है। और जो मनसे इन्द्रियों को रोककर कर्मेन्द्रियोंद्वारा असक्त हुआ कर्मयोगका प्रारम्भ करता है, हे अर्जुन | वह विशेष है। इसलिये तू नियत (अधिकारानुसार) कर्मको कर, कर्म न करनेसे कर्म करना श्रेष्ठ है, क्योंकि बिना कर्मके तेरी शरीरयात्रा भी सिद्ध नहीं होगी।
इन तीनों श्लोकोंसे तिलक मतका कोई अङ्ग प्रमाणित नही होता। न तो इनसे यही सिद्ध होता है कि मोक्षप्राप्तिमें कर्म स्वतंत्र साधन है, न यह सिद्ध होता है कि ज्ञानसे कर्म विशेष है और न यह कि ज्ञानीके लिये कोई कर्तव्य है। इन श्लोकोंमें स्पष्ट यही कथन है कि जो मनमें विषयोंका चिन्तन करता रहता है और इन्द्रियोंको रोककर निश्श्रेष्ट हो बैठा है वह दम्भी है । वेदान्त भी ऐसे त्यागको आदर नहीं देता । परन्तु शुभसकामकर्म, निष्काम