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साधारण धर्म]
पादप्रक्षालन व जूठन उठानेका भार लिया हुआ था, पहुँचा
और उस हजारो मन जूठनपर कई दिनतक पड़ा रहा। परन्तु युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें उस कोमल भावका महत्व न रहनेके कारण उसका शेप आधा मुख भी स्वर्णमय न हो सका। इससे वहाँ यही निष्कर्ष निकाला गया है कि जितना मूल्यवान् यति की, आधी रोटीका दान था, युधिष्ठिरका समग्र राजसूय यज्ञ उसके एक अंशके बराबर भी नही था, भावराज्य का ऐसा ही विचित्र महत्त्व है। भगवान तिलकने स्वयं अपने गीतारहस्यमें इस आख्यानको दृष्टान्त रूपसे ग्रहण किया है । इस प्रकार धनी व निर्धनका विचार न रख, सभी गृहस्थोंके लिये उपयोगी और सबको सुलभ ऐसे महत्त्वपूर्ण नृयज्ञका विधान करके हिन्दु धर्म तथा वेद-शास्त्रोंने संसारमें गौख प्राप्त किया है। इसके यथार्थ उपयोगद्वारा प्राप्त हुई क्षणिक शान्ति ऐसी बहुमूल्य है कि वह लाखों रुपयोंके भोग भोगनेस भी नहीं मिल सकती। यह शान्ति-सुख ही ऐसा प्रवल शस्त्र है जो अनेक दुराचारोंसे रक्षाकर दाताको धर्म-पथमें अग्रसर होनेके लिए घरवश धकेल देता है। स्वयं गीता इस नृयनके लिये इन दृढ़ शब्दोमे यू जोर देती है :: यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्व किल्विषैः । । । भुञ्जते ते त्वधं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।। (अ.३-९३)
अर्थः, गाशेप अन्नको खानेवाले श्रेष्ठ पुरुष सर्व पापोंसे मुक्त हो जाते हैं और जो पापी केवल अपने ही उदरके निमित्त पकाते हैं वे अन्न नही, किन्तु पाप भक्षण करते हैं। । गृहस्थाश्रमकी जो महिमा तिलक महोदयने गाई है वह पथार्थ है, परन्तु उसकी यह महिमा केवल उदारतापूर्ण त्यागके सम्बन्धसे ही है, न कि कृपणतापूर्ण:पकड़से । वास्तवमें यह नृयज्ञ