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[आत्मविलास श्लो. २) कहाँसे पा सकती है ? क्योंकि भेद-दृष्टिके कारण अभी उसको प्राप्तव्य व ज्ञातन्य शेन रहता है।
सारांश, यह सिद्ध हुआ कि निष्काम-कर्म-योगी सर्वथा समदृष्टि व अभेददृष्टिवाला नहीं होता। यद्यपि वह उस मार्ग पर चल रहा है, परन्तु अभी मभिलपर नहीं पहुँचा. मञ्जिल अभी दूर है। तथा गीता दृष्टिसे 'योग' शब्दका मुख्य अर्थ यह पूर्ण अवस्था है, जहाँ जिज्ञासु अपने लक्ष्यको पाकर और सफलमनोरथ होकर कृतकृत्य हो जाय और अपने सम्पूर्ण पुरुषार्थों से छुटकारा पाकर सब कतव्योंसे मुक्त हो जाय । लही पहुँचकर जिज्ञासु न जिज्ञासु ही रहे और न जिज्ञासा, न कुछ करना ही रहे न पाना।
(आ) 'कर्मकी व्याख्या' निष्काम कर्मक प्रसंगमें पीछे प्रथम खण्डमें की जा चुकी हैं इसलिये पुनरुक्ति निष्प्रयोजन है। ('कमकी व्याख्या को इसके साथ मिलाकर पढ़ना चाहिये)। यहाँ प्रसंगसे इतना ही कह देना काफी होगा कि शारीरिक अथवा मानसिक वह चेष्टारूप व्यापार जिसके साथ मन-बुद्धिका सम्बन्ध हो और जो मन-बुद्धिकी जानकारी हो तथा भावो. सादक हो, उस चेष्टारूप व्यपारकी 'कर्म' रूपसे संज्ञा की जाती है। परन्तु जिन शारीरिक चेष्टायोंके साथ मन-वृद्धिका सम्बन्ध नहीं होता और जो भावको उत्पन्न करनेवाली नहीं होती वे 'कर्म' की गणनामें नहीं आती । स्वयं गीताने 'कर्म की व्याख्या इसी रूपसे की है। यथाः
भूतमावोद्भवको विसर्गः कर्मसंज्ञितः। (अ.८. श्लो ३)
अर्थः-भूतोमें भावको उत्पन्न करनेवाली जो चेष्टाएँ है, उनकी कर्म' रूपसे संज्ञा की गई है।